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Sunday, October 31, 2010

Five Keys to Radio Advertising Success

Radio is an
affordable ad medium that can reach a mass audience. These five keys help
increase your chances of having a successful radio ad campaign.
Frequency of Ads

A radio commercial needs to air multiple times before it sinks in with the
listener. Running your commercial once a week for a month isn't going to be
enough.
Frequency refers to how many
times your ad airs in a short amount of time. A commercial that airs multiple
times in a day has a better chance of reaching the listener than a commercial
that only airs a few times in a week.
Target Audience

Just like with every ad you create, you must know your target audience.
Advertising your western gear store on a country station makes sense.
Advertising a teen clothing store on the same station doesn't.
Make a list of the radio
stations in your market. Listen to each one to help identify your own target
audience. What kind of listeners will be tuning in and are they a potential
customer for your product or service?
Radio stations also offer
programs you'll want to know more about before you buy. You won't want to
advertise your Christian book store during a program that uses a raunchy sense
of humor.
Producing Your Commercial

Unlike television commercials, production is more simple for a radio
commercial. You need a script and voice talent.
However, that doesn't mean you
should just slap something together. Your copy isn't relying on any visuals so
it's vital you capture the listener's attention from the start. The copy needs
to be crystal clear and not muddied by trying to be cutesy in your pitch.
Voice talent can be as simple
to find as calling the radio station. Most stations have a complete list of
voice talent in your area. You send the script, they voice it.
Remember, frequency is the key
so make sure your ad hits the mark and will get the consumer's attention the
first time. Research shows it takes a few times before the consumer actually
gets what your company is all about. It's vital your ad stands out and conveys
your message repeatedly.
Rates

Take advantage of the low ad rates for radio. Ad rates are on the rise but the
costs are still more affordable than visual mediums like television.
Use your negotiating skills to
get a good deal on an ad bundle. The more ads you buy, the better rates you'll
be able to get.
Timing Your Spending

Ad rates are generally less expensive in the first and third quarters. Radio
commercials in these time frames are easier to negotiate and cheaper for you to
advertise.
Before you take the plunge
into radio advertising, find out if you're
Ready for Radio. And if you're ready to hit
the airwaves,
this radio commercial script can show you how to deliver
strong copy that will reach your listeners every time.


ZIAUDDIN

Thursday, October 28, 2010

How to Write a Script for a Radio Ad

Radio is a huge advertising medium, and commercial spots on the radio draw millions of dollars a year for the radio stations that run them and for the companies who do the advertising. Radio commercials typically run 30 seconds, though some run as long as 60, and they need to be focused to make full use of the time allotted. Learn how to write a script for a radio ad that effectively captures the attention of the intended audience and drives home the sales message at the heart of the ad.
Difficulty: Moderate

Instructions

  1. 1
    Outline your radio commercial. You have a very short time to sell your product. Write a strong opening hook. Starting the ad with a question is an effective way of capturing the audience's attention, such as "Are you tired of high gas prices?" This immediately engages your audience. Note key selling points in your outline  and include them in the finished script. Include contact information at least twice in a 60-second radio spot.
  2. 2
    Write your script in the proper format. Write the name of the client at the top of the script, along with the name of the commercial spot and the running time. Format your script into two columns. The left column will be the source column (speaking characters primarily) and the right will be the dialogue, action and sound effects.
  3. 3
    Understand radio ad conventions. SFX stands for sound effects. Write this in the left column in all capitals and underline it any time you have a sound you want in your ad. Write the sound in the second column of your script. Use ANNCR any time the announcer is narrating. Use a double dash any time you want a slight pause. Capitalize speaking characters in the left column, and write their dialogue in the right column. Spell out phonetically any hard-to-pronounce words.
  4. 4
    Focus your radio script to include a strong hook that attracts your audience's attention, engage the listeners with an entertaining presentation and leave them excited enough to go out and buy what you're selling.
  5. 5
    Time your script when you've finished writing it. If the script is supposed to be 30 seconds, be sure it's exactly 30 seconds.
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Monday, October 25, 2010

पटकथा लेखन

पटकथा-लेखन एक हुनर है। अंग्रेजी में पटकथा-लेखन के बारे में पचासों
किताबें उपलब्ध हैं और विदेशों के खासकर अमेरिका के, कई विश्वविद्यालयों में
पटकथा-लेखन के बाक़ायदा पाठ्यक्रम चलते हैं। लेकिन भारत में इस दिशा में अभी तक कोई
पहल नहीं हुई। हिन्दी में तो पटकथा-लेखन और सिनेमा से जुड़ी अन्य विद्याओं के बारे
में कोई अच्छी किताब छपी ही नहीं है। इसकी एक वजह यह भी है कि हिन्दी में सामान्यतः
यह माना जाता रहा है कि लिखना चाहे किसी भी तरह का हो, उसे सिखाया नहीं जा सकता। कई
बार तो लगता है कि शायद हम मानते हैं कि लिखना सीखना भी नहीं चाहिए। यह मान्यता
भ्रामक है और इसी का नतीजा है कि हिन्दी वाले गीत-लेखन, रेडियो, रंगमंच, सिनेमा,
टी.वी. और विज्ञापनों आदि में ज़्यादा नहीं चल पाए।
लेकिन इधर फिल्म और टी.वी के
प्रसार और पटकथा-लेखन में रोजगार की बढ़ती सम्भावनाओं को देखते हुए अनेक लोग
पटकथा-लेखन में रुचि लेने लगे हैं, और पटकथा के शिल्प की आधारभूत जानकारी चाहते
हैं। अफसोस कि हिन्दी में ऐसी जानकारी देने वाली पुस्तक अब तक उपलब्ध ही नहीं
थी।
‘पटकथा-लेखन : एक परिचय’ इसी दिशा में एक बड़ी शुरुआत है, न सिर्फ इसलिए कि
इसके लेखक सिद्ध पटकथाकार मनोहर श्याम जोशी हैं, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने इस
पुस्तक की एक-एक पंक्ति लिखते हुए उस पाठक को ध्यान में रखा है जो फिल्म और टी.वी
में होने वाले लेखन का क, ख ग, भी नहीं जानता। प्राथमिक स्तर की जानकारियों से शुरू
करके यह पुस्तक हमें पटकथा लेखन और फिल्म व टी.वी की अनेक माध्यमगत विशेषताओं तक
पहुँचाती हैं, और सो भी इतनी दिलचस्प और जीवन्त शैली में कि पुस्तक पढ़ने के बाद आप
स्वतः ही पटकथा पर हाथ आजमाने की सोचने लगते हैं।




1
देखने-सुनने की चीज है सिनेमा





कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि जिसे लिखना आता है वह कुछ भी लिख सकता है।
लेकिन यह सच नहीं है। हर विधा की, हर माध्यम की अपनी अलग-अलग विशेषताएं होती हैं और
उनके लिए लिख सकने के  लिए अलग-अलग तरह की योग्यताएँ दरकार होती हैं। उदाहरण के
लिए, पत्रकार से यह आशा की जाती है कि यथार्थ का कम-से-कम शब्दों में
ज्यों-का-त्यों वर्णन करेगा और अपनी कल्पना से कोई काम नहीं लेगा। दूसरी ओर
कहानीकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपनी कल्पना के सहारे यथार्थ को एक यादगार
रंग देकर साहित्य के स्तर पर पहुंचा देगा।

साहित्य में यह सुविधा है कि
शब्दों के सहारे किसी भी चीज का वर्णन किया जा सकता है और कैसी भी भावना उभारी जा
सकती है। कोई पात्र क्या याद कर रहा है ? क्या सपने देख रहा है ? उसकी परिस्थिति
क्या है ? मन:स्थिति क्या है ? अन्य पात्रों से उसके सम्बन्ध कैसे हैं ? उनके बारे
में वह क्या सोचता है ? पात्रों की आपसी टकराहट से कब, कहाँ, क्या हो रहा है ? इस
सबका शब्दों द्वारा वर्णन किया जा सकता है। लिखित साहित्य में एक अतिरिक्त सुविधा
यह प्राप्त है कि अगर पाठक को कोई बात पहली बार पढकर समझ में न आए तो वह उसे
फिर-फिर पढ़ सकता है।



वाचिक साहित्य, श्रव्य माध्यम



वाचिक (बोलकर सुनाए जानेवाले) साहित्य में श्रोता को यह सुविधा
प्राप्त नहीं है। व्यास गद्दी पर विराजमान कथावाचक को श्रोता बार-बार नहीं टोक सकते
कि हम समझ नहीं पाए, कृपया दुबारा कहें। इसलिए वाचिक साहित्य में बात को सरल शब्दों
और वाक्यों में कहना होता है। यादगार और चुभती हुई बनाकर कहना होता है। मंच से
गा-बोलकर सुनाए जाने वाले साहित्य में कलाकार कठिन प्रसंगों को दुहराने की या स्वयं
ही ‘अर्थात्’ या ‘क्या कहा’ जैसे प्रश्न उठाकर खुलासा करने की युक्ति भी अपनाते
हैं। लोक-नाटक ‘सांग’ में जब किसी हिंदी-उर्दू-गीत में कोई कठिन पंक्ति आती है तब
संचालक सम्बद्ध पात्र से पूछता है कि उस पंक्ति का क्या मतलब है-यथा-‘‘अरी गुल
बकावली, तू दो लम्बर पर के बोली ?’’ और फिर वह पात्र ठेठ हरियाणवी गद्य में पंक्ति
विशेष का अर्थ बताता/बताती है।

वाचिक साहित्य के आधुनिक माध्यम रेडियो से
नाटक प्रस्तुत करते हुए दोहराने-समझाने की ऐसी कोई गुंजाइश नहीं होती। यही नहीं,
श्रोता बोलनेवाले को केवल सुनता है, देखता नहीं कि उसके चेहरे के भाव पढ़ सके। इस
दृष्टि से रेडियो खालिस श्रव्य माध्यम है। इसके लिए ऐसा लेखक दरकार है जो सारा
कथानक पात्रों की आपसी बातचीत और साउंड इफैक्ट यानी ध्वनि-प्रभाव के सहारे उजागर कर
सके। फर्ज कीजिए कि दृश्य यह हो कि नायक-नायिका घोड़े पर सवार होकर अपना पीछा करते
नायिका के घुड़सवार भाइयों से बचते हुए नाटक के गाँव की ओर बढ़ रहे हैं जो फिरोजा
नदी के पार है, तो घोड़ों की टापों के ध्वनि-प्रभाव से और नायक-नायिका और भाइयों की
आपसी बातचीत से पीछा किए जाने की स्थिति स्पष्ट करनी होगी और फिर नदी की कल-कल के
ध्वनि-प्रभाव और नायक के संवाद से स्पष्ट करना होगा कि वह फिरोजा नदी आ गई है,
जिसके पार उसका गाँव है।

साहित्य पढ़ने से ताल्लुक रखता है तो रेडियो सुनने
से। उधर फिल्म और टी.वी. ऐसे माध्यम हैं जिनमें हम एक साथ देखते भी हैं, सुनते भी
हैं, और पर्दे पर लिखा हुआ पढ़ भी सकते हैं। फिल्म और टी.वी. में हम घटनाओं को होता
हुआ देखते हैं और पात्रों को बोलता हुआ सुनते हैं। इसीलिए इन्हें ऑडियो-विजुअल यानी
दृश्य-श्रव्य माध्यम कहते हैं। यहाँ यह पूछा जा सकता है कि रंगमंच में भी तो हम
घटनाओं को होता हुआ और पात्रों को बोलता हुआ सुनते हैं; तो फिर रंगमंच को
ऑडियो-विजुअल क्यों नहीं कहते ? इसका जवाब यह है कि रंगमंच के लिए लिखा गया नाटक तो
‘साहित्य’ की श्रेणी में आता है क्योंकि उसमें सारी बात संवादों यानी शब्दों के
माध्यम से प्रस्तुत की जाती है। यह नाटक दर्शकों के सामने अभिनेताओं द्वारा खेला
जाता है इसीलिए उसकी प्रस्तुति प्रदर्शन-कलाओं के अन्तर्गत आती है।



सिनेमा और नाटक



आप आपत्ति कर सकते हैं कि फिल्म और टी.वी. के लिए भी पटकथा लिखी जाती
है और उसे डायरेक्टर यानी दिग्दर्शक के निर्देशन में ठीक उसी तरह खेला जाता है जैसे
मंच पर। यह सवाल उठाना तीन बातों को भूल जाना है। पहली यह कि फिल्म और टी.वी. में
रंगमंच की तरह नाटक दर्शकों के नहीं, एक कैमरे के सामने खेला जाता है। दूसरी यह कि
जो एक बार खेल दिया जाता है वह हमेशा के लिए दर्ज हो जाता है। तीसरी और सबसे अहम
बात यह है कि दर्शकों के प्रतिनिधि बने हुए कैमरों पर रंगमंच के दर्शक की तरह यह
रोक नहीं होती कि वह अपनी ही सीट पर बैठकर तमाशा देखें, मंच पर न चढ़ आएँ। रंगशाला
में आगे से आगे वाली सीट पर बैठे हुए दर्शकों और मंच पर खड़े पात्रों के बीच भी
हमेशा एक दूरी बनी रहती है। सिनेमाघर में बैठे दर्शक के लिए कैमरा यह दूरी मिटा
देता है। यही नहीं, कैमरा अपनी सीट पर ही बैठे दर्शक को पात्रों से चाहे जितनी दूरी
पर भी, चाहे जितना ऊपर-नीचे ले जा सकता है।

कैमरा आगे-पीछे कहीं भी कितनी भी
दूरी पर रखा जा सकता है। पास से दूर ले जाया जा सकता है और दूर से पास लाया जा सकता
है। उसे ऊपर-नीचे ले जाया जा सकता है; अपनी धुरी पर घुमाया जा सकता है। पात्रों के
सिर के ऊपर की ओर देखता हुआ रखा जा सकता है तो पात्रों के कदमों से भी नीचे से ऊपर
की ओर देखता हुआ रखा जा सकता है। उसे समुद्र की गहराई में ले जाया जा सकता है और
पर्वत की ऊंचाई पर भी। गोया कैमरा आजाद और बेढब करतब करके सब कुछ देख लेने को तैयार
दर्शक बन जाता है। कैमरा दर्शक का नुमाइंदा बनकर किसी भी पात्र या वस्तु के नजदीक
जा सकता है। वह किसी पात्र के चेहरे की छोटी-से-छोटी भाव-भंगिमा, उसके बदन का कोई
छोटे-से-छोटे हिस्सा, कोई छोटी-से-छोटी वस्तु या उसका हिस्सा और किसी स्थल का
छोटे-से-छोटा ब्यौरा दिखा सकता है। साथ ही वह चीजों को इतना बड़ा करके दिखा सकता है
जितना कि पास आकर भी आँख से नहीं देखा जा सकता।

रंगमंच में यह सीमा भी होती
है कि उसमें बहुत बड़ी-बड़ी चीजें नहीं दिखाई जा सकतीं। भव्य-से-भव्य मंच पर पानीपत
की लड़ाई या एवरेस्ट विजय या सागर में टाइटैनिक जहाज का डूबना जैसे दृश्य नहीं
दिखाए जा सकते। उधर कैमरा जैसे छोटी-से-छोटी चीज को दिखा सकता है, वैसे ही
बड़ी-से-बड़ी चीज को भी। रंगमंच में सीमित ही सैट लग सकते हैं इसलिए सीमित ही
घटना-स्थल रखे जा सकते हैं। उतना ही दिखाया जा सकता है जितना उन सैटों में हो सकता
है। फिल्म और टी.वी. में ऐसी कोई सीमा नहीं है। आप चाहे जितने सैट बना सकते हैं और
चाहे जितने बाहरी लोकेशनों पर जा सकते हैं। पात्रों को ले जाइए, कैमरा ले जाइए और
लोकेशन पर शूट कर लाइए और फिर सबको जोड़कर दिखा दीजिए। एक तरफ से दर्शक के लिए
फिल्म की खासियत ही यह बन जाती है कि उसमें घटना-स्थल बड़ी तेजी से बदलता रहता
है।



बिम्ब बोलेंगे, हम नहीं



जहाँ रंगमंच के मुकाबले फिल्म में ये तमाम सुविधाएँ थीं, वहीं शुरू
में उतनी ही बड़ी एक असुविधा भी थी कि चित्र के साथ ध्वनि अंकित नहीं की जा सकती
थी। गोया सिनेमा गूँगा था। इस असुविधा ने एक नई भाषा को जन्म दिया जिसमें तस्वीरें
ही खुद बोलती थीं। चित्रों के सहारे कहानी कह देने की यह कला कैमरे के पास-दूर,
इधर-उधर जा सकने से मिलनेवाले तरह-तरह के चित्रों और इस तरह खींचे हुए चित्रों को
उनमें सम्बन्ध पैदा करनेवाले क्रम से जोड़ने की युक्ति से विकसित हुई। मूकपट के दौर
में दिग्दर्शकों ने इस कला में इतनी महारत हासिल कर ली कि बगैर संवाद सुने भी
ज्यादातर कहानी दर्शकों की समझ में आने लगी। जहां बहुत ही जरूरी हुआ केवल वहीं
संवाद को कार्ड में लिखकर फिल्मा लिया गया और पात्र के ओंठ खुलने के बाद दिखा दिया
गया। बोलते बिम्बों का कमाल कुछ वर्षों पहले कमल हसन की मूक फिल्म ‘पुष्पक’ में
देखा गया। उसमें तो कहीं कोई संवाद का कार्ड तक न था।

जब चित्र के साथ-साथ ध्वनि भी अंकित की जाने लगी तब मूकपट ने बोलचाल का रूप ले लिया। इससे संवादों का महत्त्व बढ़ा लेकिन इतना भी नहीं कि रंगमंच की तरह सारी बात संवादों के माध्यम से
कही जाने लगे। कोई नाटक खेला और कैमरा दर्शक की तरह रखकर उसे दर्शा दिया ! मूकपट
दर्शकों को बिम्बों की सशक्त भाषा का इतना आदी कर चुका था कि इस तरह से फिल्माया
गया नाटक उन्हें बिलकुल बेजान लगता। इसीलिए बिम्बों का महत्त्व बना रहा और संवाद
फिल्मों पर पूरी तरह हावी न हो सके। हां, नाटकों से इन नए माध्यमों ने ‘नाटकीयता की
पकड़’ और ‘तीन अंकों वाला ढाँचा’ जरूर ज्यों-का-त्यों उधार ले लिया।

फिल्म और टेलीविजन में बिम्बों की भाषा और पात्रों के संवाद, दोनों का कहानी कहने में
बड़ा महत्त्व है। लेकिन फिल्म और टेलीविजन में एक बड़ा अंतर यह है कि टेली-नायक में
संवादों का महत्त्व लगभग उतना ही हो जाता है जितना नाटक में। इसकी वजह यह है कि
टेलीविजन का पर्दा सिनेमा के पर्दे के मुकाबले में बहुत छोटा होता है उसमें कैमरा
को बहुत दूर ले जाने से खास कुछ दिखता नहीं। इललिए ज्यादातर पात्रों के बोलते हुए
चेहरे ही फिल्माए जाते हैं। गोया बिम्बों में ज्यादा विविधता नहीं रह पाती। दूसरी
वजह यह है कि इस छोटे से पर्दे पर आते बिम्बों को दर्शक किसी बंद अँधेरे हॉल में
नहीं, अपने घर के किसी रौशन कमरे में बैठे हुए देखते हैं। इसलिए उनकी आँखें पर्दे
पर एकटक नहीं जमी रह पातीं। अगर पात्र चुप हो जाएँ तो ध्यान पर्दे से हट जाता है।
फिर टेली-नाटकों के सीमित बजट में लोकेशनों पर जाना या बहुत ज्यादा सैट बनवाना
सम्भव नहीं होता। रंगमंच की तरह उनमें भी कुछ ही सैटों में काम चलाना पड़ता है।
इसलिए संवादों का महत्त्व बढ़ जाता है।



ऑडियो-विजुअल इमेजिनेशन



सिनेमा और टेलीविजन की विभिन्नता की बात बाद में विस्तार से की जा
सकती है। अभी तो उनकी समानता की ओर ध्यान दिलाना है कि दोनों ही दृश्य-श्रव्ये
माध्यम है। इनमें घटनाओं को होता हुआ दिखाया जाता है और पात्रों को बोलता हुआ। तो
इस माध्यम के लिए लिखनेवाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए जो दृश्य-श्रव्य कल्पना का धनी
हो। दृश्य-श्रव्य कल्पना उर्फ ‘ऑडियो-विजुअल इमेजिनेशन’ का अर्थ है अपने मानस-पटल
पर घटनाओं को घटता हुआ देख सकना और पात्रों को आपस में संवाद करते हुए सुन सकना।
ऐसा तभी हो सकता है जब आपका दिमाग भी फिल्म कैमरे की तरह काम करता हो और घटना और
संवादों का ब्यौरा दर्ज करता रहता हो। यानी आप दृश्य-श्रव्य स्मृति के धनी
हों।

यह मेरा सौभाग्य था कि मेरे साहित्यिक गुरु अमृतलालजी नागर यानी आप
दृश्य-श्रव्य के धनी हो, की दृश्य-श्रव्य कल्पना अद्भुत थी। जब मैं लखनऊ में उनका
चेला बना तब नागरजी सिनेमा जगत से साहित्य में लौटे थे। नागरजी को पहला ड्राफ्ट
बोलकर शिष्यों से लिखवाने की आदत थी। यद्यपि वह सिनेमाघर से विरक्त होकर आए थे और
हम शिष्यों को पटकथा लेखन सिखाने से साफ इनकार करते थे तथापि पटकथा लेखन की शैली का
उन पर इतना गहरा असर था कि उनके बोले हुए ‘बूँद और समुद्र’ को कागज पर उतारना गोया
पटकथा लेखन के बुनियादी तत्वों से परिचित होना था। पात्रों, परिस्थितियों और घटनाओं
का सजीव वर्णन, पात्रों की पृष्ठभूमि और मन:स्थिति के अनुसार संवाद घटनाओं के
माध्यम से चरित्र निरूपण और चरित्रों के घात-प्रतिघात से पैदा हुई घटनाएँ-पटकथा के
ये तमाम नुस्खे मुझे नागरजी की वृत्तांत शैली में मिले। भगवतीचरण वर्मा के
उपन्यासों में भी आप पटकथा का प्रभाव देख सकते हैं। वह भी बॉलीवुड में रह चुके
थे।

द्रष्टव्य है कि नागरजी और भगवती बाबू दोनों ही बेहतरीन किस्सागो थे।
घटनाओं का रस लेते हुए और रस देते हुए सजीव वर्णन करनेवाली किस्सागोई दृश्य-श्रव्य
कल्पना की उपज होती है। आपने देखा होगा कि कुछ लोग न सिर्फ ब्यौरेवार यह बता पाते
हैं कि क्या हुआ, बल्कि यह भी सुनाते जाते हैं कि किसने कब क्या कहा ? कौन कैसा था
? क्या पहने हुए था ? आदि-आदि। ऐसे लोग दृश्य-श्रव्य स्मृति के धनी होते हैं। मेरी
बहन इंटर की प्राइवेट परीक्षा देने के लिए मुरादनगर में एक हफ्ता बिताकर जब लौटी तब
उसने महीनों तक वहाँ के किस्से सुना-सुनाकर हमारा मनोरंजन किया। ठीक तीस साल बाद जब
उसकी छोटी बेटी दो साल अमेरिका में रहकर लौटी तब उसके अमेरिका प्रवास की सारी कहानी
20-25 मिनट में खत्म हो गई। मेरी भांजी मास कॉम की छात्रा होने के नाते पटकथा लेखन
की जानकारी रखती है पर उसमें दृश्य-श्रव्य स्मृति का अभाव है। उधर मेरी बहन भरपूर
दृश्य-श्रव्य-स्मृति और कल्पना की धनी है।



किस्सागो, बनिए



अफसोस, पेशेवर किस्सागो अब नहीं रहे ! वरना मैं आपसे कहता कि
दृश्य-श्रव्य कल्पना का कमाल देखना हो तो उनकी किस्सागोई का आनंद लेने जाए। वे न
सिर्फ यह बताते थे कि किस क्रम से क्या-क्या कहा। बल्किन नकलें उतार-उतार कर यह भी
थे किसने किस अंदाज में क्या-क्या कहा। बल्कि वह पात्रों की मन:स्थिति और
प्रतिक्रियाओं का भी आभास देते जाते थे-कुछ अपने शब्दों से और कुछ अपने अभिनय से।
इस तरह से सारी घटना को उसकी पूरी नाटकीयता के साथ श्रोता के लिए उजागर कर देते।
अगर कहीं कोई पेशेवर किस्सागो अब भी हो तो उसे जरूर सुनें। नहीं तो मेरी बहन सरीखे
जो गैर-पेशेवर किस्सागो आपकी जानकारी में हों उनकी बातों का रस लें। लोकमंच की कुछ
विधाओं में और धार्मिक प्रवचनों में आज भी जबरदस्त किस्सागोई की बानगी आपको मिल
सकती है।

हाल में मैंने व्यास गद्दी पर बैठे एक कथावाचक को महाभारत का एक
प्रसंग इस तरह प्रस्तुत करते हुए सुना-‘‘वहां पहुंचकर अर्जुन क्या देखता है कि
भगवान श्रीकृष्ण शयन कर रहे हैं और दुर्योधन सिरहाने खड़ा है। दुर्योधन को वहां
देखकर अर्जुन झटका खा जाता है कि अरे, ये तो मुझसे भी पहले पहुँच गए। खैर वह जाकर
श्रीकृष्ण भगवान के पैताने बैठकर प्रभु के श्रीचरण दबाने लगता है। थोड़ी देर में
प्रभु की आँख खुलती हैं। उन्हें पैताने बैठा अर्जुन पहले नजर आता है। प्रभु पूछते
हैं बताओं, किस कारण आए ? अर्जुन हाथ जोड़कर निवेदन करता है कि मैं युद्ध में आपकी
सहायता लेने आया हूँ। तब दुर्योधन बात को बीच में काटकर कहता है कि सहायता के लिए
इससे पहले मैं आया हूँ, पहले मेरी बात सुनी जाए। प्रभु उठ बैठते है और मुसकराकर
कहते हैं कि आए तुम जरूर पहले होगे मगर पैताने बैठा अर्जुन मुझे पहले नजर आया।
दुर्योधन आपत्ति करता है कि यह अन्याय वाली बात होगी। प्रभु फिर मुसकराते हैं और
कहते हैं कि देखो, मैं पूरा न्याय करूँगा-दोनों को सहायता देकर। तुममे से एक
व्यक्ति मेरी सारी सेनाएँ ले लो और दूसरा सिर्फ मुझे। श्रीकृष्ण भगवान पहले अर्जुन
को पूछतें हैं, तुम्हें क्या चाहिए ? दुर्योधन का चेहरा चिंता से खिंच जाता है कि
अब यह सारी सेना माँग लेगा। लेकिन श्रीकृष्ण भक्त अर्जुन कहता है मुझे आप चाहिएं
प्रभु, आपकी सेनाएँ नहीं। और मूर्ख दुर्योधन इसे अर्जुन की मूर्खता समझकर खुश होता
है।’’
अगले परिच्छेद में आप देखेंगे कि कथावाचक की यह शैली ही पटकथा लेखन की
शैली है।

2
पटकथा क्या बला है ?



तो मैं कह रहा था कि कथावाचक और किस्सागो अक्सर पटकथा की शैली अपनाते
हैं। यह पटकथा की शैली क्या है और कहानी कहने के आम ढंग से वह किस तरह अलग हैं, यह
जानने के लिए कोई पटकथा पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। फिल्म देखकर आए हुए किसी भी
व्यक्ति से फिल्म की कहानी सुन लीजिए, बात साफ हो जाएगी।

एक बार मैने ‘दिल
वाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ देखकर आई अपनी भतीजी से उस फिल्म की कहानी पूछी तो उसने
कुछ इस तरह कहा-काजोल लंदन में दुकान खोले हुए कठोर अमरीशपुरी और सदय फरीदा जलाल की
बेटी होती है। हालाँकि काजोल लंदन में पली-बढ़ी होती है। अमरीशपुरी उस पर अपने
भारतीय गाँव से मिले हुए संस्कार थोपता रहता है। काजोल बेचारी उससे बहुत डरती है।
अमरीशपुरी उसका ब्याह बचपन में ही भारत में अपने दोस्त के बेटे से तय कर चुका होता
है। काजोल को यह बात बेतुकी लगती है, पर वह बाप से कुछ नहीं कह पाती। शाहरूख खान
मस्तमौला विधुर अनुपम खेर का बेटा होता है। बाप-बेटा दोनों दोस्त-जैसे होते हैं। एक
रात शाहरूख खान जरूरी दवा खरीदने के बहाने अमरीशपुरी की बंद दुकान खुलवा देता है और
बीयर ले जाता है। इससे अमरीशपुरी को शाहरूख खान बहुत घटिया लड़का लगता है। उधर
फरीदा जलाल अपने पति से चिरौरी करके बेटी को भारत लौटने से पहले सहेलियों के साथ
यूरोप यात्रा पर जाने की इजाजत देती है। वहीं उसकी मुलाकात शाहरूख खान से होती है।
तकरार के बाद दोनों में प्यार हो जाता है। लंदन लौटने पर अमरीशपुरी को इस बात का
पता चलता है और वह काजोल को लेकर पंजाब चल देता है, सादी करवाने।’’

आप गौर
करेगे कि यह काहनी कहने का सामान्य ढंग नहीं है। आमतौर से तो कहानियाँ ‘एक था राजा’
वाली शैली में लिखी जाती हैं। उसे कहने या लिखनेवाला एक ऐसी घटना बयान कर रहा होता
जो अतीत में घट चुकी है। इसलिए वह भूतकालीन क्रियापदों का उपयोग करता है-‘‘एक राजा
था जो अपनी रानी से बहुत प्यार करता था। लेकिन उसे इस बात का बहुत दुख था कि रानी
को कोई संतान न थी।’’

इस हिसाब से तो मेरी भतीजी को कहानी कुछ इस तरह सुनानी
चाहिए थी-‘लंदन नगर का भारतीय दुकानदार अमरीशपुरी रूढ़िवादी विचारो का था इसलिए
अपनी बेटी काजोल पर कड़ा अंकुश रखता था। काजोल जितना ही उससे डरती थी उतना ही अपनी
दयालु माँ फरीदा जलाल से प्यार करती थी। अमरीश चाहता था कि उसकी बेटी भारत में उसके
दोस्त के बेटे से शादी करे। मगर काजोल उस शाहरूख खान को दिल दे बैठी थी जिसने उसके
पिता को एक दिन नाराज कर दिया था।’’ मगर मेरी भतीजी ने कहानी इस तरह नहीं सुनाई। और
वह कोई अपवाद नहीं है। आप किसी से भी किसी फिल्म की कहानी, सुनें, वह मेरी भतीजी
वाली शैली में सुनाएगा। कोई यह नहीं कहेगा कि ‘हीरो को गुस्सा आ गया’ या ‘हीरोइन ने
जहर पी लिया’ आपको उससे यही सुनने को मिलेगा कि ‘हीरो गुस्सा हो जाता है’, ‘हीरोइन
जहर पी लेती है।’ ऐसा इसलिए होता है कि दर्शक फिल्म में घटनाओं को होता हुआ और
पात्रों को बोलता हुआ सुनता है। फिल्म में अतीत सतत नहीं, वर्तमान दर्शाया जाता है।
इसलिए फिल्म की कहानी सुनाते हुए हम अनिश्चित वर्तमान काल के क्रियापदों का प्रयोग
करने लगते हैं। एक राजा था की जगह हम कहते हैं, ‘एक राजा होता है।’
 
 
 
ZIAUDDIN

Saturday, October 16, 2010

{ जल की स्वास्थ में भूमिका }

जल ही जीवन है, ऐसा बहुधा कहा-सुना जाता है, क्योंकि बिना भोजन के हम कई दिन तक स्वस्थ बने रह सकते हैं किन्तु बिना जल एक दिन भी नहीं व्यतीत किया जा सकता और इसके बिना तीन दिन रहना प्राण-घातक हो सकता है. जल के अभाव में रक्त गाढ़ा होने लगता है जिससे शरीर की पोषण क्रियाएँ ठप पड़ने लगती हैं. वैसे भी जीवन की प्रथम उत्पत्ति जल में ही हुई, और हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में जल उपस्थित होता है, तथा भोजन के तरल रस से ही हम पोषण पाते हैं, शरीर के अन्दर द्रव्यों की तरल अवस्था में ही जैविक क्रियाएँ संचालित होती हैं, और शरीर का शोधन भी शरीर में जल-चक्र के कारण ही संपन्न होता है. अतः हमारे जीवन में जल सर्वव्यापी भूमिका रखता है.

जलाभाव :


मानव देह में जलाभाव को तीन वर्गों में रखा गया है - दैनन्दिन, अचूक, और चिकित्सीय. इनमें से अंतिम दो शरीर को जल कई दिन तक उपलब्ध होने से उत्पन्न होते हैं, किन्तु दैनन्दिन जलाभाव थोड़ी सी लापरवाही अथवा जल उपलब्धि का विशेष ध्यान रखने से ही उत्पन्न हो जाता है जो शरीर में अनेक रोगों को जन्म देता है, विशेषकर पाचन और शोधन में. शरीर में नित्य प्रति की असुविधाओं जैसे उल्टी, दस्त, दूप में काम करना, आदि से भी दैनन्दिन जलाभाव उत्पन्न हो जाता है. इस प्रकार के जलाभाव व्यक्ति निष्क्रिय हो जाता है, उसका रंग फीका पड़ने लगता है, और उसे शीघ्र ही थकान होने लगती है. अतः व्यक्ति द्वारा शरीर को जल की नियमित उपलब्धि एक नियमित आदत के रूप में की जानी चाहिए.

जल की मात्रा :

मानव शरीर को प्रतिदिन कितने जल की आवश्यकता होती है, इस बारे में अनेक राय दी जाती हैं जो सभी मात्र संकेतात्मक हैं, क्योंकि यह मात्रा अनेक गुणकों पर निर्भर करती है. अधिक फल और सब्जियां खाने से अतिरिक्त जल की आवशकता कम हो जाती है, जबकि शुष्क, परिशोधित और संश्लेषित खाद्यों के उपभोग से अधिक जल की आवश्यकता होती है. इसी प्रकार शीत, वर्षा और ग्रीष्म ऋतुओं में भी जल की भिन्न मात्राओं की आवश्यकता होती है जिसका कारण त्वचा से जल का भिन्न वाष्पीकरण होना है. तथापि मनुष्य को जल की आवश्यकता का बोध उसका शरीर करता रहता है और जब भी ऐसा अनुभव हो उसे आवश्यकता से कुछ अधिक जल पी लेना चाहिए. एक बार में अधिक जल पीने की अपेक्षा अनेक बार में जल की अल्प मात्रा लेना अधिक लाभकर होता है. औसत रूप में मनुष्य को . लीटर से . लीटर जल प्रतिदिन लेना चाहिए जिसमें उसके द्वारा लिए गए पेयों, फलों, सब्जियों तथा अन्य रूप में उपलब्ध जल भी सम्मिलित है. साथ ही मदिरा और रासायनिक पेयों में उपलब्ध रसायन शरीर के जल का अधिक अवशोषण करते हैं, जिससे इनके माध्यम से शरीर का जलाभाब दूर नहीं होता. यद्यपि शरीर के लिए शुद्ध जल अपरिहार्य है किन्तु निम्बू-जल इसे अतिरिक्त ऊर्जावान बनाने ने में सहायक होता है.



शरीर में जलाभाव:

शरीर में जलाभाव से रक्त में ठोस द्रव्यों का अनुपात बढ़ जाता है. इसमें सामान्य से दो प्रतिशत वृद्धि शरीर में जलाभाव का आरम्भ होने के लिए पर्याप्त होती है, जब कि एक प्रतिशत वृद्धि पर मनुष्य प्यास अनुभव करने लगता है. प्यास लगने पर जल पीकर उक्त प्रतिशत में सामान्य से एक प्रतिशत की कमी की जा सकती है जिससे व्यक्ति संतुष्टि अनुभव करने लगता है.



जलापूर्ति हेत आवश्यक रसायन:

जलापूर्ति हेत आवश्यक रसायन : भोजन आदि के साथ लिए गए जल की ९५ प्रतिशत मात्रा रक्त में पहुँचती है जहां से यह कोशिकाओं को उपलब्ध कराया जाता है, जहाँ रासायनिक क्रियाओं में इसका उपयोग होता है. इन क्रियाओं के लिए जल के साथ-साथ खनिजों, आयनीकृत रसायनों और अनिवार्य वसीय अम्लों की भी आवश्यकता होती है जिनके अभाव में जल का उपयोग नहीं हो सकता.

अतः शरीर में जल की पर्याप्त मात्रा होने पर भी कोशीय स्तर पर जलाभाव संभव होता है जो उक्त खनिजों, आयनीकृत रसायनों और अनिवार्य वसीय अम्लों के अभाव के कारण उत्पन्न होता है.



जरावस्था क्या है:

जरावस्था क्या है : कोशिकाओं में, अन्तः और बाह्य, दो स्तरों में जल उपस्थित होता है, जबकि कोशिका क्रियाएँ केवल अन्तः जल की उपस्थिति से होती हैं. किन्तु आयु वृद्धि के साथ-साथ अन्तः क्रियाएँ मंद होने लगती हैं और कोशिकाएं जल को अपने अन्तः में स्वीकार नहीं करतीं और जल कोशिकाओं के बाह्य स्तर पर ही जमा रहता है. इसे कोशिकाओं का शुष्कन कहा जाता है जो जरावस्था का संकेत है. आयनीकृत और सूक्ष्म खनिज कोशिकाओं में रासायनिक क्रियाओं में सहायक होते है, जिससे वे जल को अपने अन्तः में शोषित करती रहती है और जरावस्था को निष्प्रभावी बनाते हैं.





आयनीकृत एवं सूक्ष्म खनिज और वसीय अम्लों के प्राकृत स्रोत:

आयनीकृत एवं सूक्ष्म खनिज और वसीय अम्लों के प्राकृत स्रोत : ताजे फल, सब्जियां एवं सलाद, मेवा और साबुत बीज, आदि आयनीकृत एवं सूक्ष्म खनिज और वसीय अम्लों के प्राकृत स्रोत हैं किन्तु इनका उत्पादन जैव-गतिक कृषि द्वारा किया जाना चाहिए जिसमें कृषक भूमि की उर्वरा का शोषण करके उसका सतत पोषण करता है. इसका दूसरा उपाय भोजन में समुद्र से प्राप्त प्राकृत नमक का उपयोग है जिसमें लगभग ६० खनिज उपस्थित होते हैं जो शरीर की कोशकीय क्रियाओं और उनमें जल के संतुलन को बनाये रखते हैं.




मूत्र से संकेत:

मूत्र से संकेत : हलके पीत रंग का मूत्र शरीर में जल की संतुलित मात्रा की उपस्थिति का संकेत होता है. मूत्र का पीत रंग उसमे उपस्थित सोडियम, क्लोराइड, नाइट्रोजन और पोटेशियम के कारण होता है. अतः मूत्र के गहरे रंग का अर्थ है कि शरीर में जल का अभाव है, तथा मूत्र के वर्णहीन होने का अर्थ है कि शरीर में जल की मात्रा आवश्यकता से अधिक है अथवा शरीर में खनिजों का अभाव है. मूत्र का चमकीला पीला रंग उसमें उपस्थित विटामिनों के कारण होता है जो उनकी अधिकता का संकेत है जिससे कोई हानि नहीं है.



शरीर में जल की अधिकता:


शरीर में जल की अधिकता : शरीर को उसकी आवश्यकता से अधिक जल प्रदान करना भे हानिकर होता है - इससे व्यक्ति की किडनियों पर अनावश्यक कार्यभार पड़ता है तथा अतिरिक्त मूत्र के साथ शरीर के अनेक मूल्यवान खनिज भी उसके माध्यम से बाहर निकल जाते हैं. कैल्सियम जैसे ये खनिज कोशिकाओं में जल का संतुलन बनाये रखते है तथा इनका अधिक निष्कासन हानिकर होता है जिससे कोशिकाएं फट भी सकती हैं. बहुत अधिक परिश्रम करने से शरीर को आवश्यकता से अधिक जल की प्यास लगने लगती है जिससे हाइपोनेत्रिमिअ नामक रोग उत्पन्न हो सकता है जिसमें शरीर में केल्शियम का अभाव उत्पन्न हो जाता है. यदि किसी कारण से अत्यधिक जल पिया जाये तो उसके साथ शरीर को खनिजों की आपूर्ति भी की जानी चाहिए जो समुद्री नमक और शक्कर के घोल से सरलता से हो सकती है.





"जियाउददीन"


{जामिया मिलिया इस्लामिया}