
आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के बढ़ने के कारण हमारे देश में वैसे तो हर उम्र के लोगों में खुदकुशी की घटनायें बढ़ी है लेकिन छात्रों में खुदकुशी की दर कहीं अधिक तेजी से बढ़ी है और इसका मुख्य कारण उन पर परिवार एवं स्कूल का बढ़ता दवाब है।
आंकड़ों के अनुसार पिछले 10 वर्षो में 15 से 24 साल के युवाओं में आत्महत्या के मामले 200 प्रतिशत तक बढ़े हैं। एक अनुमान के अनुसार सिर्फ दिल्ली में ही प्रतिमाह चार से ज्यादा बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं।
इंडियन एसोसिएशन आफ बायो-साइकिएट्री के अध्यक्ष तथा नयी दिल्ली में जनवरी में आयोजित हो रहे इंडियन साइकियेट्रिक सोसायटी के 63 वें राश्ट्रीय सम्मेलन के अध्यक्ष डा. नीलम कुमार बोहरा ने कहा कि आज के समय में छात्रों में बढ़ रहे मानसिक तनाव एवं मानसिक रोग भी आत्महत्या में बढोतरी के कारण हैं। यह पाया गया है कि मानसिक समस्याओं से परेशान 25 फीसदी लोगों के दिमाग में आत्महत्या का ख्याल आता है। उनके पास काउंसलिंग के लिए आने वाले लोगों में 25 प्रतिशत लोग आत्महत्या करने की बात कहते हैं लेकिन इस तरह की बातें करने वाले लोगों को परिवार के भरपूर सहयोग और उचित सलाह से ऐसा करने से रोका जा सकता है।
दिल्ली कास्मोस इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड बिहैवियरल साइंसेस तथा दिल्ली साइकियेट्रिक सेंटर के प्रमुख डा. सुनील मित्तल बताते हैं कि आत्महत्या के मामले बढ़ने का मुख्य कारण परिवार, समाज या कार्यक्षेत्र से जुड़ा तनाव होता है। वहीं युवाओं में यह प्रवृत्ति बढ़ने की वजह तनाव न सह पाना है। युवाओं में आत्महत्या की एक बड़ी वजह स्कूल और परिवार का दबाव है।
अध्ययनों से पता चला है कि 15 वर्ष से कम उम्र के एक लाख बच्चों में 1 या 2 बच्चे और 14 से 19 वर्ष आयु के एक लाख बच्चों में 11-12 बच्चे आत्महत्या करते हैं। जबकि 10 से 14 वर्ष आयु के बच्चों में मौत का चौथा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या ही है। आत्महत्या के असफल प्रयास के आंकड़े तो और भी ज्यादा हैं। आत्महत्या का प्रयास करने वाले 2 प्रतिशत बच्चों की पहले प्रयास में ही मौत हो जाती है, जबकि 4 प्रतिशत बच्चों की कई बार प्रयास करने के बाद मौत होती है।
डा. सुनील मित्तल बताते हैं कि आज अभिभावक अपने बच्चों को लेकर महत्वाकांक्षी हो गए हैं। वे चाहते हैं कि उनका बच्चा रातों रात सुपर स्टार बन जाए लेकिन इस दबाव से बचपन खोता जा रहा है। अभिभावक अपने अधूरे सपनों को बच्चों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं और वे बच्चों पर इतने दवाब लाद देते हैं कि बच्चे मानसिक तौर पर टूट जाते हैं और वे घोर तनाव तथा डिप्रेशन से घिर जाते हैं और इसकी परिणति आत्महत्या के रूप में होती है।
दिल्ली साइकियेट्रिक सोसायटी पूर्व अध्यक्ष डा. बोहरा कहते हैं कि बच्चे मुख्य तौर पर जिन कारणों से आत्महत्या के लिये अधिक प्रेरित हो रहे हैं उनमें बच्चों पर बढ़ते दवाब, उनमें बढ़ता एकाकीपन और प्रतिस्पर्धाओं में पिछड़ने की आशंका प्रमुख हैं। पिछले कुछ समय में आर्थिक कारणों से अधिक से अधिक संख्या में महिलायें नौकरी-रोजगार के कारण ज्यादातर समय घर से बाहर रहने लगी हैं जिसके कारण बच्चों में एकाकीपन बढ़ गया है। माता-पिता की व्यस्तता तथा अन्य कारणों से बच्चों एवं माता-पिता के बीच संवादहीनता की स्थिति बढ़ रही है। इसके कारण न तो बच्चे अपने मन की बात को माता-पिता को बता पाते हैं और न ही माता-पिता के पास अपने बच्चों के मन को समझने के लिये समय बचा है। इस कारण बच्चे अकेले हो जाते हैं। दूसरी तरफ माता-पिता की अपने बच्चों से उम्मीदें इतनी बढ़ गयी है कि औसत दर्जे के बच्चे इस अपराध बोझ से ग्रस्त रहते हैं कि वे अपनी मां-बाप की उम्मीदें पूरी नहीं कर पा रहे हैं।
हमारे देश में आत्महत्या की प्रवृति न केवल बच्चों में बल्कि हर उम्र के लोगों में बढ़ी है। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में आत्महत्या की जितनी घटनाएं होती हैं उनमें से 7 प्रतिशत घटनायें मानसिक बीमारियों के कारण होती है और 23.8 प्रतिशत आत्महत्यायें पारिवारिक कारणों से होती है।
आंकड़ों के अनुसार भारत में हर साल एक लाख लोग खुदकुशी कर लेते हैं। दुनिया में जितनी आत्महत्यायें होती हैं उनमें से 10 प्रतिशत आत्महत्यायें भारत में होती हैं। भारत में पिछले कुछ वर्षों से आत्महत्या की दर में तेजी से वृद्धि हुई है। यहां सन् 2006 में प्रति एक लाख लोगों में 10.5 लोगों में आत्महत्या के मामले दर्ज हुए जो 1980 से 67 प्रतिशत अधिक था। अधिकतर आत्महत्या पुरुषों और युवा उम्र के लोगों के द्वारा की जाती है।
डा. बोहरा बताते हैं कि करीब 80 प्रतिशत आत्महत्यायें पूर्व संकेत के बाद होती हैं। कुछ आत्महत्यायें क्षणिक आवेग में भी होती हैं किंतु अधिकतर आत्महत्यायें एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम होती हैं। व्यक्ति आम तौर पर जीवन में मोड़ दर मोड़ आने वाली विभिन्न समस्याओं, बाधाओं और परेशानियों से जूझने की कोशिश करता है, लेकिन जब वह इन पर काबू पाने में असफल हो जाता है तब उसके मन में निराशा और हताशा की भावना आती है। ऐसा भी होता है कि व्यक्ति इन समस्याओं से निजात पाने के लिए और अन्य लोगों का ध्यान अपनी कमजोर स्थिति की ओर खींचने के लिए आत्महत्या का असफल प्रयास किया हो। उनकी यह सोचकर अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि उन्होंने आवेग में आकर या भूलवश ऐसा किया होगा बल्कि उनकी समस्याओं को समझने और उनके समाधान करने की कोशिश की जानी चाहिए।
आत्महत्या करने वालों में ज्यादातर डिप्रेशन, खास तौर पर सायकोटिक डिप्रेशन के शिकार होते हैं। इनके मन में हर समय एक किस्म का अपराध बोध मौजूद होता है, जो पूरी तरह कृत्रिम और गलत होता है। किसी भी गलत काम या दुखद घटना के लिये वे अपने आप को जिम्मेदार मान लेते हैं। हर आत्महत्या तीव्र निराशा और अवसाद (डिप्रेशन) की चरम परिणति है। इसलिए आत्महत्या की स्थिति से बचने के लिए डिप्रेशन से बचना और उसका इलाज कराना जरूरी है।
"जियाउददीन"
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