
शैक्षिक संस्थानों और शिक्षा के व्यवसायीकरण की हकीकत को बयां करती है फिल्म ‘पाठशाला’। विद्यार्थियों को जीवन एवं सामाजिक सरोकारों की सीख देने की बजाय यदि स्कूल धन उगाही का केन्द्र बन जायें तो इसे आप क्या कहेंगे?
सिनेमा ने समय-समय पर विभिन्न सामाजिक विकृतियों को पर्दे पर उकेरा है और इस बार निर्देशक मिलिंद उइके की फिल्म ‘पाठशाला’ के माध्यम से शिक्षा व्यवस्था के व्यवसायीकरण की ऐसी ही विकृति को उजागर करने का प्रयास किया गया है।
‘पाठशाला’ में दर्शाया गया है कि स्कूलों में शिक्षा से अधिक पैसे को तरजीह दी जाती है। आज देश के अधिकतर शैक्षिक संस्थान बिजनेस इकाई के रूप में खुद को स्थापित करना चाहते हैं। प्रत्येक संस्थान विज्ञापनों के माध्यम से अपना बाजार भाव स्थापित करने की कवायद में जुटा हुआ है, जिससे कि धनकुबेरों के बच्चों से शिक्षा देने के नाम पर मोटी रकम वसूली जा सके। लेकिन इस तरह के चलन से व्यवसायीकरण को बढ़ावा मिलेगा और धीरे-धीरे शिक्षा गरीब छात्रों की पहुंच से दूर होती चली जाएगी।
स्कूलों में शिक्षा से ज्यादा पैसे का बोलबाला है। विज्ञापन के माध्यम से ये स्कूल लोगों को आकर्षित करने में भले ही सफल हो जाते हों, लेकिन शैक्षणिक गुणवत्ता के मामले में दूर-दूर तक इनका कोई सरोकार नजर नहीं आता। एक ऐसे ही स्कूल सरस्वती विद्या मंदिर की कहानी है फिल्म ‘पाठशाला’।
सिनेमा ने समय-समय पर विभिन्न सामाजिक विकृतियों को पर्दे पर उकेरा है और इस बार निर्देशक मिलिंद उइके की फिल्म ‘पाठशाला’ के माध्यम से शिक्षा व्यवस्था के व्यवसायीकरण की ऐसी ही विकृति को उजागर करने का प्रयास किया गया है।
‘पाठशाला’ में दर्शाया गया है कि स्कूलों में शिक्षा से अधिक पैसे को तरजीह दी जाती है। आज देश के अधिकतर शैक्षिक संस्थान बिजनेस इकाई के रूप में खुद को स्थापित करना चाहते हैं। प्रत्येक संस्थान विज्ञापनों के माध्यम से अपना बाजार भाव स्थापित करने की कवायद में जुटा हुआ है, जिससे कि धनकुबेरों के बच्चों से शिक्षा देने के नाम पर मोटी रकम वसूली जा सके। लेकिन इस तरह के चलन से व्यवसायीकरण को बढ़ावा मिलेगा और धीरे-धीरे शिक्षा गरीब छात्रों की पहुंच से दूर होती चली जाएगी।
स्कूलों में शिक्षा से ज्यादा पैसे का बोलबाला है। विज्ञापन के माध्यम से ये स्कूल लोगों को आकर्षित करने में भले ही सफल हो जाते हों, लेकिन शैक्षणिक गुणवत्ता के मामले में दूर-दूर तक इनका कोई सरोकार नजर नहीं आता। एक ऐसे ही स्कूल सरस्वती विद्या मंदिर की कहानी है फिल्म ‘पाठशाला’।

फिल्म में सामाजिक सरोकार से जुड़ा एक मुद्दा उठाया है और उन लोगों पर निशाना साधा है, जो पैसे कमाने के लिये शिक्षा को व्यापार का माध्यम बना रहे हैं। ‘पाठशाला’ शिक्षा के ऐसे व्यापारियों की कहानी है जिनका छात्रों के कैरियर, उनकी आर्थिक, सामाजिक पृष्ठभूमि और सामाजिक विकृतियों से कोई सरोकार नहीं है, उन्हें फिक्र होती है तो सिर्फ और सिर्फ अपनी मोटी कमाई की।
विषय तो ठीक है, लेकिन जिस बात को लेकर ‘पाठशाला’ फिल्म को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है, वह है इसकी पटकथा का ढीलापन। शायद यही कारण है कि फिल्म की शुरूआत तो ठीक होती है, लेकिन बीच में भटकने सी लगती है।
राहुल प्रकाश उद्यावर (शाहिद कपूर), उनकी सहयोगी अंजली (आयशा टाकिया) और सुशांत सरस्वती विद्या मंदिर के अध्यापक की भूमिका में हैं। जबकि स्कूल के प्रधानाचार्य का किरदार नाना पाटेकर ने निभाया है।
खुद शाहिद कपूर ने फिल्म के बारे में कहा है कि 'यह फिल्म अध्यापकों के उस संघर्ष की कहानी है जहां वे बच्चों की पढ़ाई और खेल-कूद के स्तर को लगातार सुधारने की कोशिश करते हैं, लेकिन उन्हें कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।' जाहिर है कि इस बात के पीछे शाहिद कपूर का इशारा स्कूल प्रबंधन की ओर था। फिल्म इस बात की ओर संकेत करती है कि अध्यापक पढ़ाई, खेलकूद और अन्य गतिविधियों में संतुलन बनाए रखने का प्रयास करते हैं, लेकिन उन्हें प्रबंधन के आगे नौकरी के भय से झुकना पड़ता है।
शाहिद कपूर मानते हैं कि वर्तमान स्कूली शिक्षा की दशा पर आधारित फिल्म '‘पाठशाला’' एक चुनौती भरी कहानी है। शिक्षा जैसे विषयों पर आम तौर पर फिल्में बनाए जाने से इसलिए परहेज किया जाता है, क्योंकि माना जाता है कि ऐसी फिल्म बोरिंग और डाक्युमेंट्री की तरह होती हैं। शायद तभी ऐसी फिल्मों को मनोरंजक बनाना चुनौती होता है। बहरहाल, इस फिल्म में कई ऐसे लम्हे हैं जो छात्रों की समस्याओं पर रोशनी डालते हैं। स्कूल की फीस अचानक बढ़ जाना और बच्चों के माता-पिता का समय पर फीस न दे पाने से स्कूल प्रशासन द्वारा उन्हें शर्मिन्दा किया जाना, कुछ ऐसे ही पल हैं जो व्यावसायिक स्कूलों की असंवेदनशीलता की पोल खोलते हैं।
विषय तो ठीक है, लेकिन जिस बात को लेकर ‘पाठशाला’ फिल्म को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है, वह है इसकी पटकथा का ढीलापन। शायद यही कारण है कि फिल्म की शुरूआत तो ठीक होती है, लेकिन बीच में भटकने सी लगती है।
राहुल प्रकाश उद्यावर (शाहिद कपूर), उनकी सहयोगी अंजली (आयशा टाकिया) और सुशांत सरस्वती विद्या मंदिर के अध्यापक की भूमिका में हैं। जबकि स्कूल के प्रधानाचार्य का किरदार नाना पाटेकर ने निभाया है।
खुद शाहिद कपूर ने फिल्म के बारे में कहा है कि 'यह फिल्म अध्यापकों के उस संघर्ष की कहानी है जहां वे बच्चों की पढ़ाई और खेल-कूद के स्तर को लगातार सुधारने की कोशिश करते हैं, लेकिन उन्हें कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।' जाहिर है कि इस बात के पीछे शाहिद कपूर का इशारा स्कूल प्रबंधन की ओर था। फिल्म इस बात की ओर संकेत करती है कि अध्यापक पढ़ाई, खेलकूद और अन्य गतिविधियों में संतुलन बनाए रखने का प्रयास करते हैं, लेकिन उन्हें प्रबंधन के आगे नौकरी के भय से झुकना पड़ता है।
शाहिद कपूर मानते हैं कि वर्तमान स्कूली शिक्षा की दशा पर आधारित फिल्म '‘पाठशाला’' एक चुनौती भरी कहानी है। शिक्षा जैसे विषयों पर आम तौर पर फिल्में बनाए जाने से इसलिए परहेज किया जाता है, क्योंकि माना जाता है कि ऐसी फिल्म बोरिंग और डाक्युमेंट्री की तरह होती हैं। शायद तभी ऐसी फिल्मों को मनोरंजक बनाना चुनौती होता है। बहरहाल, इस फिल्म में कई ऐसे लम्हे हैं जो छात्रों की समस्याओं पर रोशनी डालते हैं। स्कूल की फीस अचानक बढ़ जाना और बच्चों के माता-पिता का समय पर फीस न दे पाने से स्कूल प्रशासन द्वारा उन्हें शर्मिन्दा किया जाना, कुछ ऐसे ही पल हैं जो व्यावसायिक स्कूलों की असंवेदनशीलता की पोल खोलते हैं।

स्कूल प्रशासन भले ही शिक्षा के व्यवसायीकरण की ओर कदम बढ़ा रहे हों, लेकिन फिल्म ‘पाठशाला’ के कलाकारों ने इस सामाजिक मसले पर संजीदा रवैया अपनाते हुए जिम्मेदारी की मिसाल पेश की है। शाहिद कपूर ‘पाठशाला’ जैसी फिल्में इसलिए करना चाहते थे, ताकि उसके माध्यम से जनमानस का ध्यान इस सामाजिक बुराई की तरफ खींचा जा सके। दूसरी ओर नाना पाटेकर को फिल्म का विषय इतना पसंद आया कि उन्होंने इसके लिये पारिश्रमिक लेने से ही इंकार कर दिया और मेहनताने के रूप में मिले पैसे को स्वयंसेवी संस्थाओं को दान कर दिया।
स्कूल की माली हालत के खराब होने का हवाला देकर प्रशासन छात्रों से मोटी रकम वसूलने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने लगता है। नाम की चाहत में स्कूल की गतिविधियां बाजार में बेची जाने लगती हैं। शहर के व्यापारियों से मिलकर प्रबंधन यह फरमान जारी कर देता है कि बच्चों को पढाई लिखाई से लेकर खेलकूद और यूनिफार्म इत्यादि सब कुछ स्कूल से ही खरीदना होगा, जबकि वहां के दाम बाजार से काफी अधिक होते हैं।
यही नहीं, स्कूलों की कमाई के कई अन्य तरीकों को भी फिल्म में दर्शाया गया है। स्कूल का स्वरूप किसी कार्पोरेट कम्पनी की तरह गढ़ा जाने लगता है। फिल्म में उन स्कूलों की भी चर्चा की गई है जो बाहर से पुस्तकें खरीदने पर बच्चों को सजा तक सुना देते हैं। इन सब कारणों सें स्कूल के अध्यापकों में रोष उत्पन्न हो जाता है और वे सभी बच्चों के साथ मिलकर शाहिद कपूर की अगुआई में हड़ताल कर देते हैं। इससे स्कूल की छीछालेदर होने लगती है। मीडिया भी बच्चों की खबर बेचने के लिए लालियत हो उठता है। अंतत: इस मामले में मंत्रीजी को हस्तक्षेप कर स्कूल के प्रबंधक को फटकार लगानी पड़ती है। इससे बौखलाया प्रबंधन तत्काल इसे रोकने का आदेश जारी कर देता है।
स्कूल की माली हालत के खराब होने का हवाला देकर प्रशासन छात्रों से मोटी रकम वसूलने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने लगता है। नाम की चाहत में स्कूल की गतिविधियां बाजार में बेची जाने लगती हैं। शहर के व्यापारियों से मिलकर प्रबंधन यह फरमान जारी कर देता है कि बच्चों को पढाई लिखाई से लेकर खेलकूद और यूनिफार्म इत्यादि सब कुछ स्कूल से ही खरीदना होगा, जबकि वहां के दाम बाजार से काफी अधिक होते हैं।
यही नहीं, स्कूलों की कमाई के कई अन्य तरीकों को भी फिल्म में दर्शाया गया है। स्कूल का स्वरूप किसी कार्पोरेट कम्पनी की तरह गढ़ा जाने लगता है। फिल्म में उन स्कूलों की भी चर्चा की गई है जो बाहर से पुस्तकें खरीदने पर बच्चों को सजा तक सुना देते हैं। इन सब कारणों सें स्कूल के अध्यापकों में रोष उत्पन्न हो जाता है और वे सभी बच्चों के साथ मिलकर शाहिद कपूर की अगुआई में हड़ताल कर देते हैं। इससे स्कूल की छीछालेदर होने लगती है। मीडिया भी बच्चों की खबर बेचने के लिए लालियत हो उठता है। अंतत: इस मामले में मंत्रीजी को हस्तक्षेप कर स्कूल के प्रबंधक को फटकार लगानी पड़ती है। इससे बौखलाया प्रबंधन तत्काल इसे रोकने का आदेश जारी कर देता है।

बहरहाल, फिल्म के किरदारों में शाहिद कपूर और आयशा ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है और नाना पाटेकर ने हर बार की तरह इस बार भी अपने अभिनय से लोगों को आकर्षित किया है। स्कूल मैनेजर के रूप में सौरभ शुक्ला और चपरासी की भूमिका में अंजन श्रीवास्तव ने भी अच्छी अदाकारी दिखाई है।
“यहां यह टिप्पणी आवश्यक है कि निर्माता-निर्देशक और पटकथा लेखक ने विद्यालय का नाम 'सरस्वती विद्या मंदिर' रखा है जो वास्तव में देश में विद्यालयों की बड़ी श्रृंखला है। इसके द्वारा संचालित हजारों विद्यालयों में भारतीय संस्कृति और संस्कार की शिक्षा दी जाती है। शिक्षा के व्यापारीकरण के खिलाफ खड़े सरस्वती विद्या मंदिरों के उल्लेखनीय योगदान को नकारते हुए फिल्म में एक कार्पोरेट ढ़ंग पर चलने वाले विद्यालय को ‘सरस्वती विद्या मंदिर’ नाम देना अपमानजनक है। साथ ही अंग्रेजी नाम वाले जिन कान्वेंट स्कूलों में यह व्यापारीकरण फल-फूल रहा है,
"जियाउददीन"
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