तथ्य के आधार पर पृथ्वी नाम के इस गृह पर दस करोड़ से अधिक
कन्याओं को धरती पर आने से पहले मौत के घाट उतारा जा चुका है। कुदरत की कहें तो
मादा शिशु की जीवन शक्ति नर की तुलना में अधिक होती है। इस प्रकार यदि कन्या भ्रूण
हत्या को बंद किया जा सके तो मानव समाज में नर की तुलना में मादाओं की संख्या अधिक
होगी। इसके विपरीत वस्तुस्थिति में मादा से नर की संख्या का अनुपात निरंतर गिर रहा
है। विडंबना यह कि मानव समाज के सभ्य और विकसित कहे जाने वाले वर्ग में कन्या भ्रूण
हत्या सर्वाधिक प्रचलन में है।
भारत में और सारे विश्व में आदिम
जातियों-जनजातियों में महिलाओं को अधिक मान-सम्मान और स्वीकृति का स्थान प्राप्त
है। पश्चिमी मध्यप्रदेश के भील-भिलालों के आदिवासी जनसमुदाय में कन्य जन्म बड़ी
प्रसन्नता का विषय होता है। सामाजिक व्यवस्थाओं में आर्थिक कारणों से यहां महिलाओं
को स्त्री धन के रूप में मान्यता प्रप्त है और यही आर्थिक कारण तथाकथित सभ्य विकसित
समाजों में क्या भ्रूण हत्या की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। एक नर व मादा शिशु के
पालन-पोषण में लगभग समान लागत आती है, जबकि कन्याओं को परिपक्वता तक लाना अधिक
जिम्मेदारी और जवाबदारी का काम है। सभ्य समाजों का कठोर सत्य यह है कि कन्याओं के
पालन-पोषण का यह निवेश सामाजिक संबंधों में उसके अपने किसी लाभ का नहीं
होता।
कन्या की योग्यता या कोई भी संभावित लाभ वर पक्ष के ही खाते में आता
है। हां, किसी घटना-दुर्घटना की स्थिति में वधू के प्रति कन्या पक्ष की जवाबदारी
आजीवन बनी रहती है। इसके भी ऊपर शादी संबंधों में दहेज की प्रथा समझ के परे है।
सभ्य समाज की व्यवस्थाओं का तर्कसंगत आकलन करें तो कौन मूर्ख ऎसा निवेश करेगा,
जिसमें अपना लाभ तो शून्य हो उलटा हानि भी तय हो, ऊपर से आजीवन जिम्मेदारी और
जवाबदारी अलग। आदिवासी जातियों-जनजातियों में लड़की के बदले धन लेने की जो प्रथा है
उससे कन्या भ्रूण हत्या का प्रत्यक्ष समाधान तो मिलता है, लेकिन यहां भी कन्या को
खरीद-फरोख्त का विषय ही माना गया है। कन्या भ्रूण हत्या निश्चित ही हत्या के समकक्ष
निंदनीय अपराध है, लेकिन संवैधानिक व्यवस्थाओं में इसका निर्णायक समाधान मिलना तीन
काल में संभव नहीं, क्योंकि अपराध की जड़ सामाजिक, आर्थिक कारणों में है। मूल
मुद्दे को हल किए बिना देश का शासन-प्रशासन अपनी पूरी ताकत झोंककर भी कन्या भ्रूण
हत्या और गर्भपात को नहीं रोक सकता। इस दिशा में किसी सार्थक समाधान के लिए सबसे
पहले हमें यह स्वीकारना होगा कि हर जीव अपने आप में स्वतंत्र सत्ता है। फिर व्यवहार
में हमें ऎसी सामाजिक व्यवस्थाओं का विकास करना होगा, जहां लिंगभेद के परे हर
व्यक्ति स्वतंत्र जीवन-यापन कर सके। महिलाओं में बढ़ती आर्थिक स्वतंत्रता इस दिशा
मे सकारात्मक परिणाम ला सकती है।
शासकीय स्तर पर महिलाओं के लिए विशेष लाभ
की जो योजनाएं लाई जाती हैं, वे लिंगभेद पर ही आधारित हैं, जबकि निर्णायक हल भेदभाव
के समाधान में छुपा है। दहेज प्रथा, लड़कियों की खरीद-फरोख्त या कन्या भ्रूण हत्या
सबके मूल में लिंगभेद ही प्राथमिक कारण है। फिर नर की तुलना में हर दृष्टि से अधिक
सक्षम, योग्य और उपयोगी होने के बावजूद मादा का अवमूल्यन करने की सामाजिक धारणा का
कोई तर्कसंगत आधार नहीं है। अभिजात्य वर्ग की बात करें तो आपके पुत्र के स्थान पर
पुत्री आपकी वारिस क्यों नहीं हो सकती? मध्यमवर्गीय परिवारों को लें तो आपकी बेटी
आपके बुढ़ापे का सहारा बने इसमें क्या कठिनाई है? शादी के बाद यदि लड़का, लड़की के
परिवार में रहे तो क्या बुराई है?
हमें बस एक बार लिंगभेद को अपने मन से
निकालकर सामाजिक व्यवस्थाओं का स्वाभाविक पुनर्गठन करना है। बिना किसी पूर्वाग्रह
के समाज में शादी संबंधों को तर्कसंगत विचार देना है। भारत में जहां पालतू पशुओं को
भी पशुधन से अधिक जीवन का हिस्सा माना जाता है, çस्त्रयों की धन से तुलना कर देखना
सरासर अन्याय है। çस्त्रयों को धन हानि का सूत्रधार बनाने की सामाजिक व्यवस्थाएं
गलत हैं तो धन लाभ के लिए çस्त्रयों को सहेजना भी गलत है। संबंधों का सामाजिक विकास
तो सार्थक होगा, जब çस्त्रयों को धन के लाभ-हानि से परे एक स्वतंत्र सत्ता की
मान्यता मिले। आर्थिक, सामाजिक व्यवस्थाओं में लिंगभेद का कोई स्थान ही न हो।
संवैधानिक व्यवस्थाओं में युक्तियुक्तकरण के द्वारा समाज में समानता का पोषण किया
जाए। भारत को अपने भविष्य के लिए भेदभाव का यह भ्रम आज ही छोड़ना होगा।
"जियाउददीन"
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