शिशु ही अपने देश तथा समाज के भविष्य होते
हैं. इसलिए भविष्य के विश्व का स्वरुप इस पर निर्भर करता है कि आज हम वयस्क अपने
बच्चों का लालन-पालन किस प्रकार करते हैं. शैशवावस्था में बच्चे के मनोविज्ञान की
नींव बनती है. इस विषयक कुछ सूक्ष्म तत्वों का अध्ययन यहाँ किया जा रहा है.

शिशु को सांत्वना उसे शांत बनाती है
जिससे वह गहन निद्रा का भी आनंद ले पाता है जिससे उसके शरीर और मस्तिष्क का स्वस्थ
एवं संतुलित विकास होता है.
अन्य संसर्ग
जन्म से पूर्व शिशु एकल
होता है और वह जागतिक व्यवहार से परिचित नहीं हो पाता जो उसके विकास के लिए
अनिवार्य है. इसलिए शिशु के स्वस्थ विकास के लिए अन्य लोगों द्वारा उसके मुख-मंडल
के हाव-भावों और शारीरिक गतिविधियों, यथा मुस्कान, किल्कार्तियाँ, रोना, आदि के
प्रति सजग एवं समुचित प्रतिक्रियाएं व्यक्त करना होता है. इससे शिशु अपनी क्रियाओं
के प्रति समाज को सजग पाता है जिससे उसे हार्दिक प्रसन्नता होती है और वह जागतिक
व्यवहार से परिचित होने लगता है. इसके विपरीत यदि शिशु को समाज की सजग
प्रतिक्रियाएं नहीं प्राप्त होती हैं तो वह स्वयं का एक अपरिचित वातावरण में होना
अनुभव करने लगता है, और उसकी विश्व, समाज और परिवार में कोई रूचि विकसित नहीं हो
पाती.
वस्तुतः इस प्रकार के सक्रिय संसर्ग ही शिशु की प्राथमिक शिक्षा होती
है जिसके माध्यम एवं प्रभाव से वह स्वयं को समाज का सक्रिय एवं गौरवमय अंग समझने
लगता है. इससे उसकी समाज की गतिविधयों को पहचानने की सामर्थ, आत्म-विश्वास और
सम्मान की भावनाएं विकसित होती हैं.
माँ का सम्मान और उसकी प्रसन्नता
आरम्भ के ६ माह तक शिशु हेतु सर्वोत्तम एवं प्राकृत पोषण माँ के दूध से
प्राप्त होता है जो उसके विकास के साथ उसकी बाह्य वातावरण की अशुद्धियों से रक्षा
भी करता है जिससे वह निरोग रहता है. माँ के दूध के पोषक तत्व उसकी भावुक स्थिति से
नियमित होते हैं. तदनुसार स्वस्थ एवं प्रसन्न माँ शिशु को उत्तम पोषण प्रदान करती
है जबकि रुग्ण एवं असंतुष्ट माँ शिशु के विकास एवं उसे निरोग रहने हेतु उपयुक्त
पोषण प्रदान करने में असमर्थ होती हैं. इसलिए शिशुओं के स्वस्थ लालन-पालन के लिए
पिता, परिवार और समाज सभी का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे मातृत्व का सम्मान करें
और उन्हें प्रसन्न रखें.
यहाँ मैं अपना निजी अनुभव व्यक्त करना चाहता हूँ जो
मैंने अपनी बकरी और उसके मेमने से प्राप्त किया है. मैं मूलतः कठोर अनुशासन प्रिय
हूँ जब कि बकरी पूरी तरह इसे नहीं समझ पाती और यदा-कदा भटक जाती है. ऐसी स्थिति में
मैं जब भी बकरी को डांटता अथवा पीटता हूँ तो दूर स्थित उसका मेमना भी सहम जाता है
जब कि मेमने के साथ मैंने सदैव सहृदय व्यवहार ही किया है. अतः माँ के सम्मानित अथवा
अपमानित होने पर शिशु भी ऐसा ही अनुभव करता है.
बाल-गृहों
में पलने वाले बच्चों में व्यक्तिगत संसर्ग के अभाव में अपनी पहचान और भावुकता की
कमी पनप जाती है जिसे दूर करने में उतना ही अधिक लम्बा समय लगता है जितना विलम्ब
उनके बाल-गृहों से पारिवारिक वातावरण जाने में लगता है. इसलिए बाल-गृहों में शाशुओं
के साथ व्यक्तिगत संसर्ग हेतु अधिकाधिक कर्मियों की आवश्यकता होती है. इसके
अतिरिक्त शिशुओं को गोद लिए जाने की प्रक्रिया यथा शीघ्र व्यवस्थित की जानी
चाहिए.
हैं. इसलिए भविष्य के विश्व का स्वरुप इस पर निर्भर करता है कि आज हम वयस्क अपने
बच्चों का लालन-पालन किस प्रकार करते हैं. शैशवावस्था में बच्चे के मनोविज्ञान की
नींव बनती है. इस विषयक कुछ सूक्ष्म तत्वों का अध्ययन यहाँ किया जा रहा है.
किसी शिशु से घनिष्ठ संपर्क का सर्वोत्तम
आनंददाई मार्ग स्पर्श होता है जिससे शिशु अपनत्व भाव विकसित करता है. स्पर्श के
माध्यम से शिशु व्यक्ति के साथ सतत भावुक संसर्ग में रहता है जिससे उसका विकास
समग्र एवं स्वस्थ होता है. मनुष्य का शरीर, विशेषकर माँ का वक्षस्थल शिशु के शरीर
के वांछित तापमान तथा अन्य सान्त्वनाएँ प्रदान करता है. इस सांत्वना का एक कारण यह
भी होता है कि माँ के वक्षस्थल के संसर्ग से शिशु को उसकी ह्रदय ध्वनि सुनाई पड़ती
है जिससे वह जन्म से पूर्व से ही परिचित होता है.
आनंददाई मार्ग स्पर्श होता है जिससे शिशु अपनत्व भाव विकसित करता है. स्पर्श के
माध्यम से शिशु व्यक्ति के साथ सतत भावुक संसर्ग में रहता है जिससे उसका विकास
समग्र एवं स्वस्थ होता है. मनुष्य का शरीर, विशेषकर माँ का वक्षस्थल शिशु के शरीर
के वांछित तापमान तथा अन्य सान्त्वनाएँ प्रदान करता है. इस सांत्वना का एक कारण यह
भी होता है कि माँ के वक्षस्थल के संसर्ग से शिशु को उसकी ह्रदय ध्वनि सुनाई पड़ती
है जिससे वह जन्म से पूर्व से ही परिचित होता है.
शिशु को सांत्वना उसे शांत बनाती है
जिससे वह गहन निद्रा का भी आनंद ले पाता है जिससे उसके शरीर और मस्तिष्क का स्वस्थ
एवं संतुलित विकास होता है.
अन्य संसर्ग
जन्म से पूर्व शिशु एकल
होता है और वह जागतिक व्यवहार से परिचित नहीं हो पाता जो उसके विकास के लिए
अनिवार्य है. इसलिए शिशु के स्वस्थ विकास के लिए अन्य लोगों द्वारा उसके मुख-मंडल
के हाव-भावों और शारीरिक गतिविधियों, यथा मुस्कान, किल्कार्तियाँ, रोना, आदि के
प्रति सजग एवं समुचित प्रतिक्रियाएं व्यक्त करना होता है. इससे शिशु अपनी क्रियाओं
के प्रति समाज को सजग पाता है जिससे उसे हार्दिक प्रसन्नता होती है और वह जागतिक
व्यवहार से परिचित होने लगता है. इसके विपरीत यदि शिशु को समाज की सजग
प्रतिक्रियाएं नहीं प्राप्त होती हैं तो वह स्वयं का एक अपरिचित वातावरण में होना
अनुभव करने लगता है, और उसकी विश्व, समाज और परिवार में कोई रूचि विकसित नहीं हो
पाती.
वस्तुतः इस प्रकार के सक्रिय संसर्ग ही शिशु की प्राथमिक शिक्षा होती
है जिसके माध्यम एवं प्रभाव से वह स्वयं को समाज का सक्रिय एवं गौरवमय अंग समझने
लगता है. इससे उसकी समाज की गतिविधयों को पहचानने की सामर्थ, आत्म-विश्वास और
सम्मान की भावनाएं विकसित होती हैं.
माँ का सम्मान और उसकी प्रसन्नता
आरम्भ के ६ माह तक शिशु हेतु सर्वोत्तम एवं प्राकृत पोषण माँ के दूध से
प्राप्त होता है जो उसके विकास के साथ उसकी बाह्य वातावरण की अशुद्धियों से रक्षा
भी करता है जिससे वह निरोग रहता है. माँ के दूध के पोषक तत्व उसकी भावुक स्थिति से
नियमित होते हैं. तदनुसार स्वस्थ एवं प्रसन्न माँ शिशु को उत्तम पोषण प्रदान करती
है जबकि रुग्ण एवं असंतुष्ट माँ शिशु के विकास एवं उसे निरोग रहने हेतु उपयुक्त
पोषण प्रदान करने में असमर्थ होती हैं. इसलिए शिशुओं के स्वस्थ लालन-पालन के लिए
पिता, परिवार और समाज सभी का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे मातृत्व का सम्मान करें
और उन्हें प्रसन्न रखें.
यहाँ मैं अपना निजी अनुभव व्यक्त करना चाहता हूँ जो
मैंने अपनी बकरी और उसके मेमने से प्राप्त किया है. मैं मूलतः कठोर अनुशासन प्रिय
हूँ जब कि बकरी पूरी तरह इसे नहीं समझ पाती और यदा-कदा भटक जाती है. ऐसी स्थिति में
मैं जब भी बकरी को डांटता अथवा पीटता हूँ तो दूर स्थित उसका मेमना भी सहम जाता है
जब कि मेमने के साथ मैंने सदैव सहृदय व्यवहार ही किया है. अतः माँ के सम्मानित अथवा
अपमानित होने पर शिशु भी ऐसा ही अनुभव करता है.
शिशु में अनुकूलन सामर्थ
सुकोमल शैशवावस्था मनुष्य जीवन काल की
वातावरण के साथ सर्वाधिक अनुकूल होने की सामर्थ रखती है.सदा एक ही व्यक्ति के साथ,
एक जैसी परिस्थितियों में, अथवा एक जैसी जलवायु में रहने से शिशुओं की विभिन्न
परिस्थितियों में अनुकूलन की सामर्थ विकसित नहीं हो पाती. परिवर्तनीय परिस्थितियों
में रोगी होने से बचे रहने की सामर्थ विकसित करने के लिए शिशुओं को विभिन्न
परिस्थितियों में रखा जाना चाहिए. इसी प्रकार शिशुओं को आवश्यकता से अधिक सुरक्षा
प्रदान करने से भी वे विविध परिस्थितियों के योग्य हो जाते हैं.
वातावरण के साथ सर्वाधिक अनुकूल होने की सामर्थ रखती है.सदा एक ही व्यक्ति के साथ,
एक जैसी परिस्थितियों में, अथवा एक जैसी जलवायु में रहने से शिशुओं की विभिन्न
परिस्थितियों में अनुकूलन की सामर्थ विकसित नहीं हो पाती. परिवर्तनीय परिस्थितियों
में रोगी होने से बचे रहने की सामर्थ विकसित करने के लिए शिशुओं को विभिन्न
परिस्थितियों में रखा जाना चाहिए. इसी प्रकार शिशुओं को आवश्यकता से अधिक सुरक्षा
प्रदान करने से भी वे विविध परिस्थितियों के योग्य हो जाते हैं.
बाल-गृहों की दशा
में पलने वाले बच्चों में व्यक्तिगत संसर्ग के अभाव में अपनी पहचान और भावुकता की
कमी पनप जाती है जिसे दूर करने में उतना ही अधिक लम्बा समय लगता है जितना विलम्ब
उनके बाल-गृहों से पारिवारिक वातावरण जाने में लगता है. इसलिए बाल-गृहों में शाशुओं
के साथ व्यक्तिगत संसर्ग हेतु अधिकाधिक कर्मियों की आवश्यकता होती है. इसके
अतिरिक्त शिशुओं को गोद लिए जाने की प्रक्रिया यथा शीघ्र व्यवस्थित की जानी
चाहिए.
परिवारों में पलने वाले बच्चों की तुलना में
बाल-गृहों में पलने वाले बच्चों में विशेषता यह होती है कि वे सभी को सम-भाव से
देखते हैं क्योंकि उनके वातावरण में अपने-पराये का भाव नहीं होता, जो सामाजिक
दृष्टि से एक धनात्मक सद्गुण है.
बाल-गृहों में पलने वाले बच्चों में विशेषता यह होती है कि वे सभी को सम-भाव से
देखते हैं क्योंकि उनके वातावरण में अपने-पराये का भाव नहीं होता, जो सामाजिक
दृष्टि से एक धनात्मक सद्गुण है.
ZIAUDDIN
No comments:
Post a Comment