ZIAUDDIN

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Friday, December 31, 2010

Coffee Is Refreshing Drink - काफी में गुण बहुत हैं ...

काफी एक अच्छा पेय है किन्तु कोई भी वस्तु सभी परिस्थितियों में अच्छी सिद्ध नहीं हो पाती. समुद्री तट के नम क्षेत्रों का उत्पाद होने के कारण यह शरीर में शुष्कता उत्पन्न करती है. इसलिए मैदानी क्षेत्रों के शुष्क मौसम में काफी का उपयोग सावधानी से किया जाना चाहिए. ऐसी अवस्था में काफी के साथ दूध मिलाना लाभकर होता है क्योंकि दूध की वसा काफी की शुष्कता को संतुलित कर देती है, अन्यथा काली काफी का कोई जवाब नहीं.
एक और चेतावनी : उत्तरी भारत में काफी के नाम पर चिकोरी का उत्पादन किया जा रहा है, जिसका संस्कारित चूर्ण काफी जैसा स्वाद देता है. चिकोरी काफी में मिलावट के लिए उपयोग की जाती है. इसलिए उत्तरी भारत में आप काफी के नाम पर चिकोरी अथवा इसकी मिलावट पा सकते हैं. काफी में चिकोरी की मिलावट संयुक्त राज्य अमेरिका में भी की जाती है किन्तु वहां इसकी मिलावट का प्रतिशत काफी के पैकेट पर लिखा जाना अनिवार्य है. भारत मतवालों का देश है यहाँ सबकुछ चलता है बे रोकटोक - काफी में मिलावट भी.अब आते है अपनी विषय-वस्तु अर्थात काफी के सद्गुणों पर, एक-एक करके -
ओक्सिडेंट निरोधक 
शरीर में चलने वाली अनेक प्रक्रियाओं में द्रव्यों का ऑक्सीकरण होता रहता है जिनसे अनेक ओक्सिडेंट शरीर में जमा होने लगते हैं. इनकी अधिकता होने पर शरीर में अनेक बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं इसलिए इनका नियमित निष्कासन आवश्यक होता है. यद्यपि फल और सब्जियां सर्वाधिक प्रबल ओक्सिडेंट निरोधक होती हैं तथापि अमेरिका में ओक्सिडेंट निरोधक के रूप में काफी की भूमिका प्रथम स्थान रखती है. दूसरे और तीसरे स्थानों पर काली-चाय और सर्वप्रिय केला है.
Timothy's World Coffee, Kona Blend for Keurig Brewers, 24-Count K-Cups (Pack of 2)
जैविक क्रिया उत्प्रेरक 
शरीर में जैविक क्रियाओं की सतत उपस्थिति ही जीवन है जिसमें पाचन एवं पोषण भी सम्मिलित हैं. काफी, विशेषकर प्रातः काल का एक प्याला, शरीर को तीन घंटे तक चुस्त, दुरुस्त और सक्रिय बनाने के लिए पर्याप्त होता है, किन्तु इसमें अत्यधिक शक्कर, दूध, क्रीम आदि का संयोजन नहीं किया जाना चाहिए. ऐसा मेटाबोलिक दर में वृद्धि के कारण होता है.
स्मृति पोषक 
काफी में पाया जाने वाला विशेष द्रव्य कैफीन पहचान करने की क्रिया तो सक्रिय करता है जो मस्तिष्क की सक्रियता का द्योतक है. इससे मनुष्य की अल्पकालीन स्मृति में सुधार होता है. शोधों से पाया गया है कि काफी मस्तिष्क में बीटा अमाइलोइद नामक प्रोटीन की मात्रा की कमी करती है जो अल्ज्हेइमेर रोग को जन्म देती है. इस रोग में व्यक्ति की अल्पकालिक स्मृति नष्ट हो जाती है.
दन्त रक्षक 
Eight O'Clock Coffee, Original Ground, 12-Ounce Bag (Pack of 4)भुने हुए काफी दानों को पीस कर काफी चूर्ण तैयार किया जाता है. भुने हुए काफी दानों में ऐसे जीवाणुओं को नष्ट करने की सामर्थ्य होती है जो दांतों में सडन उत्पन्न कर उन्हें खोखला बनाते हैं. इस प्रकार काफी दन्त क्षय को रोकती है किन्तु इसमें शक्कर और दूध का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए.
 
माइग्रेन का उपचार 
माइग्रेन रोग के कारण व्यक्ति के सिर में भारी पीड़ा होती है. कैफीन इसकी चिकित्सा का प्रमुख द्रव्य है जो काफी में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है. इस प्रकार काफी सिर दर्द की अचूक औषधि है.

"जियाउददीन"

Thursday, December 30, 2010

Psychological Maturity -- मानसिक परिपक्वता

प्रायः ६० वर्ष की आयु निवृत्ति की आयु मानी जाती है, जबकि वैज्ञानिक शोधों से पाया गया है कि मनुष्य में मानसिक परिपक्वता ४० वर्ष की आयु से आरम्भ होती है और लगभग ७० वर्ष की आयु तक विकसित होती रहती है. हाँ, इतना अवश्य है कि ६० वर्ष की आयु के बाद शारीरिक क्षय होने की संभावना हो जाती है.
मानसिक परिपक्वता का सबसे महत्वपूर्ण कारण स्मृति में अनुभव-जन्य सूचनाओं का अधिक समावेश होना होता है, जो ४० वर्ष की अवस्था के बाद तीव्रता से संवर्धित होता है क्योंकि उस समय व्यक्ति अपने लक्ष्यों, कर्तव्यों और अवलोकनों के बारे में अधिक गंभीर हो जाता है जिससे उसका प्रत्येक अनुभव मूल्यवान होता जाता है.
शोधों से पाया गया है कि मानसिक अपरिपक्वता की अवस्था में व्यक्ति अपने मस्तिश के के केवल दायें भाग का उपयोग करता है जबकि दूसरा केवल आकस्मिक उपयोगों के लिए सुरक्षित रहता है. किन्तु परिपक्वता की स्थिति में व्यक्ति अपने मस्तिष्क के दोनों भागों का उपयोग करने लगता है. इसका प्रबाव वैसा हे होता है जैसा
कि किसी कार्य करने में एक हाथ और दोनों हाथों के उपयोग में होता है. समस्त मस्तिष्क के उपयोग से व्यक्ति की दक्षता और निर्णय अधिक सशक्त होते हैं.
परिपक्व आयु में व्यक्ति द्वारा छोटी-छोटी बातों जैसे किसी का नाम याद
न आना, चाबी को कहीं रखकर भूल जाना, आदि,  का भूलना उसकी निर्बलता नहीं होती अपितु
इसका केवल यह तात्पर्य होता है कि व्यक्ति गंभीर विषयों पर अधिक ध्यान देता है
जिससे ऐसी बातें जिनका कोई महत्व नहीं होता भुला दी जाती हैं. 
परिपक्व अवस्था में मस्तिष्क में मायलिन की मात्रा अधिक हो जाती है जो मस्तिष्क की नाडियों
को एक दूसरे से प्रथक रखता है और सूचनाएं एक दूसरे से मिश्रित नहीं हो पातीं. इसी कारण से भारत के प्राचीन कवि घाघ ने कहा है -


'मांस खाए मांस बढे, घी खये खोपडा'  मायलिन चिकनाई से बना
द्रव्य होता है जो दूध में पर्याप्त पाया जाता है. मस्तिष्क विकास में इसका
महत्वपूर्ण योगदान होता है. 
Matured 
६० वर्ष की आयु के बाद जब मांसपेशियां शिथिल होने लगें और व्यक्ति शारीरिक सरम में थकान अनुभव करने लगे, उसे मानसिक कर्मों में अधिक लिप्त
होते जाना चाहिए. इसके दो लाभ होते हैं - व्यक्ति की मानसिक परिपक्वता का उपयोग होता है, और उसकी मानसिक शक्ति उपयोग के कारण अक्षुण बनी रहती है. मानसिक शक्ति के अक्षुण बने रहने से मस्तिश शारीरिक आतंरिक गतिविधियों का नियमन भली भांति करता है
जिससे शरीर निरोग बना रहता है.


"जियाउददीन"

Tuesday, December 28, 2010

River, lake & Ponds-- नदी स्नान के खतरे

भारत में प्रत्येक पूर्णिमा पर नदी-स्नान की प्राचीन परम्परा है. इसके अतिरिक्त भी वर्ष में लगभग एक दर्ज़न पर्वों और अनेक अन्य पारिवारिक रिवाजों में नदी-स्नान शुभ माना जाता है. ये परिपाटियाँ इतनी सशक्त हैं कि ऐसे अवसरों पर सभी मार्ग नदी तटों की ओर अग्रसरित होते प्रतीत होते हैं, तथा अन्यत्र हेतु आवागमन के साधनों का भी अभाव उत्पन्न हो जाता है. अनेक क्षेत्रों में सामान्य जन-जीवन ठप पड़ जाता है. जहां नदी तट समीप नहीं हैं, अथवा लोग नदी तट पर जाने में असमर्थ होते हैं, वे निकटस्थ झीलों, तालाबों आदि में तथाकथित पवित्र स्नान कर लेते हैं.
यद्यपि ग्रीष्म काल के लिए तैरना सर्वोत्तम व्यायाम है, तथापि समुद्र, झील, ताल अथवा नदियों के खुले जल में स्नान करना खतरे से मुक्त नहीं है, क्यों कि ये वर्षा तथा बस्तियों के व्यर्थ जलों के आगमन से विषाक्त हो जाते हैं. भारत की पवित्रतम नदी - गंगा, के पवित्रतम नगर - वाराणसी, में सार्वजनिक स्नान हेतु बने घाटों पर जल के प्रदूषण की स्थिति इसका स्पष्ट साक्ष्य है, जहां वर्ष भर कई लाख लोग स्नान करते हैं. 
इन खुले जल स्रोतों के विषाक्त होने का एक अन्य प्रमुख स्रोत स्वयं स्नान करने वाले व्यक्ति होते हैं जिनमें से अनेक छूत के रोगी होते हैं और इस पर कोई नियंत्रण नहीं होता. इन छूत के रोगों का और भी अधिक प्रसारण होता है जब श्रद्धालु इन विषाक्त जलों का पीने के लिए उपयोग करते हैं, जिसका भी भारत में प्रचलन है.
इन विषाक्त जलों से त्वचा, आँख, कान, श्वसन और आँतों के अनेक रोग उत्पन्न होते हैं. इनमें उपस्थित क्रिप्तोस्पोरिदम, गिअर्डिया, शिगेला, ई. कोली, आदि विषाणु दस्तों जैसे आँतों के रोग उत्पन्न करते हैं. इन्हीं स्नानों के कारण कुश्त, दमा, हैजा, कोलेरा, आदि रोग नित्य प्रति फैलते रहते हैं और इनका कोई अंत प्रतीत नहीं होता. इन रोगों के उपचार में विशेष कठिनाई यह होती है कि इन्हें फ़ैलाने वाले विषाणुओं की सही पहचान भी नहीं हो पाती.    
नदी, झील और तालाबों के जलों में स्यानोबैक्टीरिया उपस्थित होते हैं जो अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न करते हैं. इनमें फॉस्फोरस उर्वरकों, कागज़ के मीलों और अन्य औद्योगिक इकाईयों के प्रदूषित जलों के मिलने से नीलम-हरे स्यानोबैक्टीरिया उत्पन्न होते हैं जो यदा-कदा इनके तलों पर हरित चिकनी परत के रूप में दिखाई भी पड़ते हैं. इन बैक्टीरियाओं के क्षणिक स्पर्श से भी दाद-खाज जैसे त्वचा रोग तथा आँतों एवं यकृत के रोग उत्पन्न हो जाते हैं.  Amyotrophic Lateral 
Sclerosis: Beyond the Motor Neuron (Neuro-Degenerative Diseases)
 
स्यानोबैक्टीरिया की कुछ प्रजातियाँ जल में नयूरोटोक्सिन भी उत्पन्न करते हैं जिनसे पार्किन्सन, ए.एल.एस जैसे मस्तिष्कीय  रोग उत्पन्न होते हैं.  ए.एल.एसतीव्रता से बढ़ने वाली और निश्चित रूप से मस्तिष्क के लिए घातक व्याधि है जो शरीर की मांसपेशियों पर नियंत्रण रखने वाली मस्तिष्क की कोशिकाओं पर प्रहार करती हैं जिससे उनका शनैः-शनैः क्षतिग्रस्त होते हुए पतन हो जाता है.
"जियाउददीन"

Saturday, December 25, 2010

शिशु का लालन-पालन --- Child Care.

 

 


शिशु ही अपने देश तथा समाज के भविष्य होते
हैं. इसलिए भविष्य के विश्व का स्वरुप इस पर निर्भर करता है कि आज हम वयस्क अपने
बच्चों का लालन-पालन किस प्रकार करते हैं. शैशवावस्था में बच्चे के मनोविज्ञान की
नींव बनती है. इस विषयक कुछ सूक्ष्म तत्वों का अध्ययन यहाँ किया जा रहा है.  







शारीरिक स्पर्श 

किसी शिशु से घनिष्ठ संपर्क का सर्वोत्तम
आनंददाई मार्ग स्पर्श होता है जिससे शिशु अपनत्व भाव विकसित करता है. स्पर्श के
माध्यम से शिशु व्यक्ति के साथ सतत भावुक संसर्ग में रहता है जिससे उसका विकास
समग्र एवं स्वस्थ होता है. मनुष्य का शरीर, विशेषकर माँ का वक्षस्थल शिशु के शरीर
के वांछित तापमान तथा अन्य सान्त्वनाएँ प्रदान करता है. इस सांत्वना का एक कारण यह
भी होता है कि माँ के वक्षस्थल के संसर्ग से शिशु को उसकी ह्रदय ध्वनि सुनाई पड़ती
है जिससे वह जन्म से पूर्व से ही परिचित होता है. 


शिशु को सांत्वना उसे शांत बनाती है
जिससे वह गहन निद्रा का भी आनंद ले पाता है जिससे उसके शरीर और मस्तिष्क का स्वस्थ
एवं संतुलित विकास होता है.

अन्य संसर्ग 
जन्म से पूर्व शिशु एकल
होता है और वह जागतिक व्यवहार से परिचित नहीं हो पाता जो उसके विकास के लिए
अनिवार्य है. इसलिए शिशु के स्वस्थ विकास के लिए अन्य लोगों द्वारा उसके मुख-मंडल
के हाव-भावों और शारीरिक गतिविधियों, यथा मुस्कान, किल्कार्तियाँ, रोना, आदि के
प्रति सजग एवं समुचित प्रतिक्रियाएं व्यक्त करना होता है. इससे शिशु अपनी क्रियाओं
के प्रति समाज को सजग पाता है जिससे उसे हार्दिक प्रसन्नता होती है और वह जागतिक
व्यवहार से परिचित होने लगता है. इसके विपरीत यदि शिशु को समाज की सजग
प्रतिक्रियाएं नहीं प्राप्त होती हैं तो वह स्वयं का एक अपरिचित वातावरण में होना
अनुभव करने लगता है, और उसकी विश्व, समाज और परिवार में कोई रूचि विकसित नहीं हो
पाती.

वस्तुतः इस प्रकार के सक्रिय संसर्ग ही शिशु की प्राथमिक शिक्षा होती
है जिसके माध्यम एवं प्रभाव से वह स्वयं को समाज का सक्रिय एवं गौरवमय अंग समझने
लगता है. इससे उसकी समाज की गतिविधयों को पहचानने की सामर्थ, आत्म-विश्वास और
सम्मान की भावनाएं  विकसित होती हैं. 

माँ का सम्मान और उसकी प्रसन्नता
आरम्भ के ६ माह तक  शिशु हेतु सर्वोत्तम एवं प्राकृत पोषण माँ के दूध से
प्राप्त होता है जो उसके विकास के साथ उसकी बाह्य वातावरण की अशुद्धियों से रक्षा
भी करता है जिससे वह निरोग रहता है. माँ के दूध के पोषक तत्व उसकी भावुक स्थिति से
नियमित होते हैं. तदनुसार स्वस्थ एवं प्रसन्न माँ शिशु को उत्तम पोषण प्रदान करती
है जबकि रुग्ण एवं असंतुष्ट माँ शिशु के विकास एवं उसे निरोग रहने हेतु उपयुक्त
पोषण प्रदान करने में असमर्थ होती हैं. इसलिए शिशुओं के स्वस्थ लालन-पालन के लिए
पिता, परिवार और समाज सभी का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे मातृत्व का सम्मान करें
और उन्हें प्रसन्न रखें.

यहाँ मैं अपना निजी अनुभव व्यक्त करना चाहता हूँ जो
मैंने अपनी बकरी और उसके मेमने से प्राप्त किया है. मैं मूलतः कठोर अनुशासन प्रिय
हूँ जब कि बकरी पूरी तरह इसे नहीं समझ पाती और यदा-कदा भटक जाती है. ऐसी स्थिति में
मैं जब भी बकरी को डांटता अथवा पीटता हूँ तो दूर स्थित उसका मेमना भी सहम जाता है
जब कि मेमने के साथ मैंने सदैव सहृदय व्यवहार ही किया है. अतः माँ के सम्मानित अथवा
अपमानित होने पर शिशु भी ऐसा ही अनुभव करता है. 


शिशु में अनुकूलन सामर्थ 

सुकोमल शैशवावस्था मनुष्य जीवन काल की
वातावरण के साथ सर्वाधिक अनुकूल होने की सामर्थ रखती है.सदा एक ही व्यक्ति के साथ,
एक जैसी परिस्थितियों में, अथवा एक जैसी जलवायु में रहने से शिशुओं की विभिन्न
परिस्थितियों में अनुकूलन की सामर्थ विकसित नहीं हो पाती. परिवर्तनीय परिस्थितियों
में रोगी होने से बचे रहने की सामर्थ विकसित करने के लिए शिशुओं को विभिन्न
परिस्थितियों में रखा जाना चाहिए. इसी प्रकार शिशुओं को आवश्यकता से अधिक सुरक्षा
प्रदान करने से भी वे विविध परिस्थितियों के योग्य हो जाते हैं.  

 

बाल-गृहों की दशा 

The Orphanageबाल-गृहों
में पलने वाले बच्चों में व्यक्तिगत संसर्ग के अभाव में अपनी पहचान और भावुकता की
कमी पनप जाती है जिसे दूर करने में उतना ही अधिक लम्बा समय लगता है जितना विलम्ब
उनके बाल-गृहों से पारिवारिक वातावरण जाने में लगता है. इसलिए बाल-गृहों में शाशुओं
के साथ व्यक्तिगत संसर्ग हेतु अधिकाधिक कर्मियों की आवश्यकता होती है. इसके
अतिरिक्त शिशुओं को गोद लिए जाने की प्रक्रिया यथा शीघ्र व्यवस्थित की जानी
चाहिए. 

 

परिवारों में पलने वाले बच्चों की तुलना में
बाल-गृहों में पलने वाले बच्चों में विशेषता यह होती है कि वे सभी को सम-भाव से
देखते हैं क्योंकि उनके वातावरण में अपने-पराये का भाव नहीं होता, जो सामाजिक
दृष्टि से एक धनात्मक सद्गुण है.
 
ZIAUDDIN 

Friday, December 24, 2010

Sports - Games in Education - एक अंतर्चेतना : खेल-खेल में शिक्षा

 

 

कुछ दिन पूर्व मेरे उद्यान
में एक जंगली बिल्ली ने तीन बच्चों को जन्म दिया, कुछ दिन बाद उनें से एक लुप्त हो
गया, दो मेरे उद्यान में अभी भी भ्रमण करते रहते हैं, कभी दोनों तो कभी अपनी माँ के
साथ. उनसे जो मैंने विशेष सीखा वह है खेलते रहना और सीखते रहना, अथवा यों कहिये कि सीखने के लिए समुचित खेल खेलिए. ये बच्चे बहुत अल्प समय के लिए विश्राम से बैठते
हैं और अधिकाँश समय उछल-कूद करते रहते हैं - कभी एक दूसरे के ऊपर तो कभी बिल्ली के
ऊपर, तो कभी पेड़-पोधों पर.
बिल्ली तथा बच्चों का सर्वाधिक प्रिय खेल बिल्ली
द्वारा लेते हुए अपनी पूंछ को झटके से इधर से उधर लेजाना, तथा बच्चों द्वारा उसके
सिरे पर उछल कर झपट्टा मारना. बच्चे जब बहुत छोटे थे तब वे यह खेल बहुत अधिक खेलते
थे किन्तु धीरे-धीरे यह खेल कम होता जा रहा है. इस खेल के माध्यम से बिल्ली बच्चों
को दौड़ते हुए शिकार पर झपट्टा मारना सिखाती है. इसी प्रकार से उनके अन्य खेल भी
किसी न किसी प्रकार की शिक्षा के माध्यम हैं. इस प्रकार उनकी माँ उनकी आरंभिक
शिक्षिका है और अब वे एक दूसरे के साथ अभ्यास करते हुए भी अपने जीवन हेतु उपयोगी
शिक्षाएं गृहण कर रहे हैं.
Instinct
बिल्ली के बच्चों द्वारा इस प्रकार शिक्षा गृहण करना उनका
जन्म-जात गुण है, जिसके लिए उनको कोई बाह्य प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है. इस
जन्म-जात गुण का कारण यह है कि बच्चों का जीवन शिकार पर निर्भर है, और शिकार के लिए
उन्हें इस शिक्षा की आवश्यकता है. यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि शिकार करना उनका
जन्म-जात गुण नहीं है, किन्तु इसके लिए शिक्षा पाना उनका जन्म-जात गुण है. इस
प्रकार के जन्म-जात गुणों को जीव की अंतर्चेतानाएं (इंस्टिंक्ट) कहा जाता है.  इस
प्रकार शिक्षा पाने की इंस्टिंक्ट सभी जीवों में उपस्थित होती है - मनुष्यों में
भी.  मनुष्य का बच्चा अपना अंगूठा मुंह में देकर चूंसता हुआ अपनी माँ के स्तनों से
दूध पीने की शिक्षा पाता है, जो बाद में कुछ बच्चों की आदत बन जाती है.



ZIAUDDIN

Thursday, December 23, 2010

सावधान नमक के अतिरेक से

विगत एक माह से एक रूसी
सुन्दरी के प्रेम पत्र पाता रहा हूँ, उसकी चित्ताकर्षक तस्वीरों के साथ. बहुत
सावधान रहना पड़ रहा है उसके लावण्य से, अभी तक कुप्रभावित नहीं हुआ हूँ. किन्तु
यहाँ चर्चा उस प्रकार के नमक की न होकर भोजन में उपयोग किये जाने वाले नमक की है.
ज्ञात हुआ है दोनों प्रकार के नमकों के अतिरेक घातक सिद्ध होते हैं. वस्तुतः दोष
भोजन के नमक का न होकर उसके तत्व सोडियम का है जो नमक में लगभग ४० प्रतिशत होता है
और मनुष्य के रक्त चाप की वृद्धि करता है जिससे हृदयाघात की संम्भावना बढ़ती है ठीक
उसी तरह जिस प्रकार दोष लावण्य का न होकर उसके अवयव कामुकता का होता है.  




शोधों से निष्कर्ष निकाला गया है कि यदि विश्व की जनसँख्या
का प्रत्येक सदस्य १,२०० मिलीग्राम सोडियम प्रतिदिन कम कर दे तो विश्व में ह्रदय
रोगियों की संख्या ६०,००० से १२०,००० तक कम हो जायेगी. तदनुसार ३२,००० से ६६,०००
तक हृदयाघात कम हो जायेंगे. अमेरिका में सन २००५ की भोजन की मार्गदर्शिका में कहा
गया है कि उच्च रक्तचाप, वयो-मध्य और वयो-वृद्ध, तथा काले वर्ण वाले व्यक्तियों को
भोजन में सोडियम की मात्रा १,५०० मिलीग्राम प्रतिदिन प्रति व्यक्ति कम कर देनी
चाहिए. इन वर्गों में अमेरिका की ७० प्रतिशत जनसँख्या सम्मिलित है.    


उच्च रक्तचाप उस समय कहा जाता है जब व्यक्ति का सिस्टोलिक
रक्तचाप १४० mmHg से अधिक तथा डायास्टोलिक रक्तचाप ९० mmHg से अधिक हो. ऐसी अवस्था
में व्यक्ति व्याकुलता का अनुभव करता है और उसे शीघ्र क्रोध आने लगता है.
  


रक्त चाप पर नियंत्रण के लिए रोगियों को सोडियम की मात्रा
१५०० मिलीग्राम प्रतिदिन से कम रखनी चाहिए. रोगियों के अतिरिक्त यह सीमा श्याम वर्ण
के लोगों और ४० वर्ष से अधिक आयु के लोगों के लिए भी निर्धारित है. इसके लिए २/३
चाय के चम्मच नमक की मात्रा प्रतिदिन पर्याप्त होती है. अन्य वर्गों के लिए यह
मात्रा २३०० मिलीग्राम प्रतिदिन तक जा सकती है, जिसका अर्थ अधिकतम १ चाय-चम्मच नमक
प्रतिदिन होता है. अतः भोजन पकाते समय नमक की अल्प मात्रा ही उपयोग में ली जानी
चाहिए. 


Kaplan's Clinical Hypertension (Clinical Hypertension (Kaplan))

इस विषय में आश्चर्यजनक तथ्य यह पाया गया है कि अमेरिका
में १० प्रतिशत से कम जनसँख्या ही उक्त निर्धारित सीमा में सोडियम का उपभोग कर रही
है, शेष सभी लोग सोडियम का उपभोग आवश्यकता से कहीं अधिक - औसतन ३,४६६ मिलीग्राम
प्रतिदिन, कर रहे हैं.


ZIAUDDIN

Monday, December 20, 2010

हृदयाघात रोकिये, काली चाय पीजिये

नीदरलैंड में ७८ प्रतिशत लोग काली चाय (बिना दूध वाली) पीते हैं. वहां शोधकर्ताओं
ने पाया है कि प्रतिदिन ३ से ६ प्याला चाय पीने वालों में १ प्याला प्रतिदिन चाय
पीने वालों के सापेक्ष हृदयाघात की संभावना ४५ प्रतिशत कम होती है, जब कि
प्रतिदिन ६ प्याला से अधिक चाय पीने वालों में यह प्रतिशत केवल ३६ प्रतिशत पाया
गया. इन शोध परिणामों से ऐसा लगता है कि अधेड़ मनुष्य को ४-५ प्याला काली चाय
प्रतिदिन पीना ह्रदय के स्वास्थ के लिए लाभकर होता है. इन्ही शोधकर्ताओं ने यह भी
पाया कि काफी पीना ह्रदय के स्वास्थ के लिए उतना लाभकर नहीं है.   


यदि हम भारत में चाय पीने की आदत और प्रचलन को
देखते हैं तो इन्हें दुखदायी पाते हैं. प्रथम तो यहाँ अधिकाँश लोग चाय में दूध का
उपयोग करते हैं जिससे लाभ यह होता है कि घटिया किस्म की चाय पत्ती जो आम तौर पर
उपयोग की जाती है, भी स्वाद खराब नहीं कर पाती. दूध का स्वाद पत्ती के अस्वाद को
लुप्त कर देता है. किन्तु चाय में दूध का उपयोग दन्त-क्षय का महत्वपूर्ण कारण सिद्ध
होता है. दूध शीघ्रता से सड़ने वाला द्रव्य है, इसलिए इसे पीने के तुरंत बाद कुल्ला
करके मुख को स्वच्छ किया जाना चाहिए. किन्तु चाय पीने के बाद तापमान में अंतर के
कारण तुरंत कुल्ला नहीं किया जा सकता. इसलिए चाय के साथ जो दूध के कण दांतों में
लगे रह जाते हैं, वे सडन उत्पन्न करते हैं. इसके विपरीत काली चाय दांतों में लगे
पायरिया की भी चिकित्सा करती है.

भारतीय घरों में मैंने बहुधा पाया है कि
चाय बनाते समय उसमें दूध और शक्कर दल कर अच्छी तरह उबाला जाता है. इस प्रक्रिया में
शक्कर में चिपचिपाहट उत्पन्न हो जाती है जो चाय पीने पर दांतों में चिपक जाती है और
देर तक लगी रहने पर पायरिया रोग को जन्म देती है जिसमें दूध की उपस्थिति का भी
सहयोग होता है. इस प्रकार भारत में प्रचलित चाय स्वास्थकर न होकर हानिकर सिद्ध होती
है.
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चाय की पाती में औक्सीकारक-निरोधी द्रव्य होते हैं जिनकी
मात्रा हरी पत्ती में अधिक होती है. इसके कारण चाय को यदि उक्त दोषों से मुक्त रखा
जाए तो स्वास्थ के लिए लाभकर सिद्ध होती है. इसमें उपस्थित कैफीन भी शरीर को चुस्त
करती है. इसलिए ४० के बाद चाय अवश्य पीजिये किन्तु ज़रा संभल कर -


  • चाय पत्ती की गुणता पर विशेष ध्यान दें, इसमें लगभग २० प्रतिशत हरी पत्ती मिला
    लें. 
  • चाय बिना दूध वाली (काली) ही पियें. यदि शरीर को दूध की आवश्यकता समझें तो दूध
    पियें और उसके तुरंत बाद दांतों पर उंगली रगड़ कर कुल्ला करें.
  • चाय में शक्कर अपने स्वाद के अनुसार पीने के पूर्व प्याले में ही डालें. काली
    चाय बिना शक्कर के भी पी जा सकती है, किन्तु इसके लिए कुछ आदत डालने की आवश्यकता
    होती है. 
  • काली चाय के प्याले में कुछ बूंदे नीबू रस की डाली जा सकती हैं, इससे स्वाद भी
    सुधरता है और चाय के साथ शरीर को विटामिन सी भी प्राप्त हो जाता है. 


ZIAUDDIN

Saturday, December 18, 2010

दिल की बात

 

 

रोग चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, प्रत्येक
रोग अपने रोग को ही सर्वाधिक कष्टकर कहता है. किन्तु ह्रदय की अस्वस्थता जीवन के
लिए वास्तव में सर्वाधिक घातक होती है क्योंकि यही रक्त के माध्यम से शरीर के
अंग-प्रत्यंग को आवश्यक पोषण पहुंचाता है. इसलिए स्वस्थ और सुखी जीवन के लिए ह्रदय
का स्वस्थ होना परमावश्यक है. ह्रदय को प्राकृतिक रूप से स्वस्थ रखना बहुत सरल है
यदि आप की आस्था रोग की चिकित्सा से अधिक रोग की रोकथाम में है.



ह्रदय को स्वस्थ रखने के लिए कुछ सरल किन्तु अति
महत्वपूर्ण उपाय निम्नांकित हैं -

  1. धूम्रपान का परित्याग करें,
  2. अपने रक्त में कोलेस्ट्रोल की नियमित जांच कराएं और इसे
    संतुलित रखने के लिए भोजन में संशोधन करें,
  3. अपना रक्त चाप नियमित रूप से जांच करवाते
    रहें,
  4. अपने रक्त में शक्कर का अनुपात नियंत्रित
    रखें,
  5. नियमित व्यायाम से अपने शरीर का भार सीमित
    रखें,
  6. तले गए खाद्यों का परित्याग करें और फल रथ सब्जियां अधिक
    खाएं,
  7. खूब गहरी नींद में सोयें, और अंतिम
  8. सदा मुस्कराते रहें. 

सरल सुखी जीवन चर्या के लिए उपरोक्त परामर्शों में क्रमांक ६ से ८ बहुत अधिक
महत्व के हैं. अपने चारों ओर मुस्कराहट छिटकाते रहने से जीवन में खुशी और स्वास्थ
आदत के रूप में विकसित हो जाते हैं. शरीर के प्रत्येक अंग को पोषण की उपलब्धता और
उस पर कार्यभार में संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता होती है. फल और सब्जियां ह्रदय के
लिए अनेक कारणों से लाभकारी सिद्ध होती हैं -  


  • फलों और सब्जियों में उपस्थित रेशे शरीर में भोजन को चिपचिपा बनने से रोकते हैं
    जिससे उस का प्रवाह सहज और प्राकृत बना रहता है. इससे उदर और आँतों में अवांछित
    गैसों का उत्पादन नहीं होता जो शरीर और मस्तिष्क दोनों को दुष्प्रभावित करती हैं. 
  • फलों और सब्जियों में ऑक्सीकरण निरोधी द्रव्य होते हैं जो शरीर से अवांछित
    द्रव्यों को निष्कासित करते हैं. इससे रक्त में चिपचिपाहट उत्पन्न नहीं होती और
    उसका प्रवाह सहज बना रहता है, और ह्रदय स्वस्थ बना रहता है. 
  • भोजन में स्थानीय एवं ऋतू अनुसार उत्पादित फलों और सब्जियों के सम्मिलित करने
    से शरीर को उसकी समयानुकूल सभी आवश्यक खनिज और अन्य पोषण प्राप्त होते हैं जो उसे
    स्वस्थ रखते हैं.  

अच्छी नींद से शरीर और मस्तिष्क को पूर्ण विश्राम प्राप्त होता है. इससे
मस्तिष्क को शरीर के क्षतिग्रस्त ऊतकों की मरम्मत और देख-रेख का अवसर प्राप्त होता
है और मनुष्य संसार की कठोर परिस्थितियों का प्रसन्नता से सामना करने के लिए पुनः
ऊर्जित हो जाता है.  



धूम्रपान व्यक्ति के श्वसन तंत्र को प्रदूषित करता है जिससे रक्त को पर्याप्त
और शुद्ध ऑक्सीजन प्राप्त नहीं हो पाती. इससे रक्त में पोषक द्रव्यों का अभाव होने
लगता है और शरीर अस्वस्थ हो जाता है.  


Cholesterol Down: Ten Simple Steps to Lower Your Cholesterol in Four Weeks--Without Prescription Drugs


रक्त में अधिक कोलेस्ट्रोल और शक्कर की
उपस्थिति से रक्त वाहिनियाँ संकुचित होने लगती हैं और रक्त चाप बढ़ने लगता है. इससे
ह्रदय पर अवांछित और अधिक भार पड़ता है. इनकी अधिकता मनुष्य को स्वतः ज्ञात नहीं हो
पाती, इसलिए इनकी जांच के लिए रक्त का नियमित परीक्षण किया जाना आवश्यक होता है
जिससे कि दोष पाए जाने पर समुचित सुधार किये जा सकें और रक्त चाप संयमित बना
रहे.  



अतः मेरी तरह आज ही शपथ लें और ह्रदय को सदा स्वस्थ
रखें.
 
ZIAUDDIN
 
 

Friday, December 17, 2010

सामाजिक सद्भाव को कम करती हुई महंगाई

 

महंगाई कोई समस्या नहीं बल्कि समस्याओं का परिणाम
है। भले ही कुछ कवि या व्यंग्यकार इस पर कवितायें और व्यंग्य लिखते हों पर सच यह है
कि बढ़ती महंगाई समाज में एक खतरनाक विभाजन करती आ रही है जिसे बड़े शहरों के निवासी
बुद्धिजीवी वातानुकूलित कमरों नहीं देख रहे। ऐसा लगता है कि इस देश में चिंतकों का
अकाल पड़ गया है यह अलग बात है कि अंग्र्रेजी मे लिखने वाले केवल औपचारिकता ही निभा
रहे हैं और हिन्दी के चिंतक की तो वैसे भी कोई पूछ नहीं है और जिनकी पूछ है वह
सोचते अंग्रेजी वालों की तरह है।

कार्ल मार्क्स ने कहा था कि ‘इस संसार में दो ही
प्रकार के लोग हैं एक अमीर और दूसरा गरीब!’

उनकी विचाराधारा का अनुसरण करने वाले अनेक नीति
निर्माता इस नारे को गाते बहुत हैं पर जब नीतियां बनाने की बात आती है तो उनके
सामने केवल अमीरों का विकास ही लक्ष्य बनकर आता है। कुछ लोगों की बातें तो बहुत
हास्यास्पद हैं जब वह विकास को महंगाई का पर्याय बताते हैं। दरअसल महंगाई यकीनन
विकास का की प्रतीक है पर वह स्वाभाविक होना चाहिए पर हम देश की स्थिति पर नज़र
डालते हैं तो पता लगता है कि पूरा देश ही कृत्रिम विकास नीति पर चल रहा है और
महंगाई की गति अस्वाभाविक और असंतुलित ढंग से बढ़ रही है जो कि अंततः समाज ही नहीं
बल्कि परिवारों का भी विभाजन करती है।

हम अगर दृष्टिपात करें तो पहले परिवार और रिश्तेदारी में अमीर ओर गरीब होते थे पर उनमें अंतर इतना अधिक नहीं होता था कि विभाजन बाहर प्रकट हो। पहले एक अमीर के पास होता था अपना बड़ा मकान, भारी वाहन तथा अन्य महंगे सामान! जबकि गरीब के पास छोटा अपना या किराये का मकान, पूराना या
हल्कातथा सस्ते सामान होते थे। एक शादी विवाह के अवसर पर भी होता यही था कि एक आदमी
अपनी शादी में अधिक प्रकार के व्यंजन परोसता था तो दूसरा कम। दो भाईयों में अंतर
होता था तो एक भाई अपनी जेब से थोड़ा व्यय कर दूसरे के बच्चे में उसकी शान बढ़ाता था।
पड़ौसियों में भी यही स्थिति थी। एक के घर में रेडियो है तो दूसरे के पास नहीं! पर
दूसरा सुनकर ही आनंद लेता था। सामाजिक सामूहिक अवसरों पर एक दूसरे के प्रति सम्मान
का भाव था। परिवार, रिश्तेदारी और पड़ौस में रहने वाले लोगों में धन का अस्वाभाविक
अंतर नहीं दिखाई देता था और जिस समाज पर हम गर्व करते हैं वह इसी का ही स्वभाविक
अर्थव्यवस्था का परिणाम था। मगर अब हालत यह है धन का असमान वितरण विकराल रूप लेता
जा रहा है। इससे आपस में ही लोगों के कुंठायें और वैमनस्य का भाव बढ़ता जा रहा है।
हम जब देश की एकता या अखंडता की बात करते हैं तो एक बात भूल जाते हैं कि अंततः यह
एक भौतिक विषय है और इसे अध्यात्मिक आधारों पर नियंत्रित नहीं किया जा सकता। हम भले
ही जाति, भाषा, तथा धर्म के आधार पर बने समूहों की मजबूती में देश की एकता या
अखंडता का भाव देखना चाहते हैं महंगाई के बढ़ते धन के असमान वितरण के भावनात्मक
परिणामों को समझे बिना यह कठिन होगा क्योंकि अल्प धन वाला अधिक धनवान में प्रति
कलुषिता का भाव रखने लगता है जो अंततः सामाजिक वैमनस्य में बदल जाता है।

अक्सर हम देश के दो हजार साल के गुलाम होने की बात करते हुए देश के सामाजिक अनुदारवाद को जिम्मेदार बताते हैं पर सच यह है कि इसके मूल में यही धन का असमान वितरण रहा है। जिन लोगों को यह बात अज़ीब लगे उन्हें यह देखना चाहिए कि हजार और पांच सौ नोट प्रचलन में आ गये हैं पर अभी भी कितने लोग हैं
जो उसके इस्तेमाल करने योग्य बन गये हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि इस तरह के
नोटों को केवल अवैध छिपाने वालों की सुविधा के लिये बनाया गया है क्योंकि जिस तरह
कुछ भ्रष्ट लोगों के यहां उनकी बरामदगी हुई उससे तो यही लगता है। दूसरा यह भी कि
साइकिल तथा स्कूटर में हवा भरने के लिये आज भी दरें वही हैं। सब्जियों तथा अन्य
खाद्य पदार्थों की दरें बढ़ी हैं पर उनके उत्पादकों की आय का स्तर में धनात्मक
वृद्धि हुई जबकि महंगाई में गुणात्मक दर से बढ़ोतरी होती दिख रही है।

कभी कभी तो इस बात पर गुस्सा आता है कि देश की संस्कृति, धर्म और अध्यात्म को लेकर कुछ लोग आत्ममुग्धता का शिकार हैं। कहीं किसी ने भारतीय धर्म अपनाया तो चर्चा होने लगती है तो कहींे भारतीय पद्धति से विवाह किया तो वाह वाह की आवाजें सुनायी देती हैं। यह भ्रम कि धर्म या अध्यात्म के आधार पर देश
को एक रखा जा सकता है अब निकाल देना चाहिये। हमारे कथित कर्मकांड तो केवल अर्थ पर
ही आधारित हैं। उसमें भी विवाह में दहेज प्रथा का तो विकट बोलबाला है। अमीर और दो
नंबर की कमाई वाले पिताओं के लिये अपनी लड़की का विवाह करना कठिन नहीं है पर उनकी
देखा देखी महंगी राह पर चलने वाले मध्यम वर्ग के लिये यह एक समस्या है।

कहने का अभिप्राय यह है कि महंगाई की धनात्मक
वृद्धि तो स्वीकार्य है पर गुणात्मक वृद्धि अंततः पूरे समाज के आधार को कमजोर कर
सकती है और ऐसे में देश की एकता, अखंडता तथा सम्मान बचाये रखना एक ऐसा सपना बन सकता
है जिसे कभी नहीं पाया जा सकता।

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ZIAUDDIN

Saturday, December 11, 2010

राखी तुने ये क्या किया रे...



टीवी चैनल्स अब किसी भी स्तर तक  गिर सकते  है...हालत इतनी बिगड़ चुकी है की टीवी प्रोग्राम अब लोगो की जान तक लेने लगे है.... प्रोग्राम के जरिये अश्लीलता परोसने वालो को शायद वो सब कुछ अच्छा लगता है और जनता भी वो सब खुशी-ख़ुशी देखती है या ये कहे की जनता अब वो ही देखना चाहती है जिसमे सब दिखे....शायद इसीलिए अश्लीलता पसंद लोगो को इन दिनों "राखी का इंसाफ''काफी लुभा रहा है....अश्लील बाते,गन्दी गालिया सुनकर लोग ठहाके लगा रहे है....प्रोग्राम में इंसाफ की देवी {राखी सावंत} को तंग कपड़ो में देखने वालो की ख़ुशी का ठिकाना नही होता...पिछले पाँच साल में राखी ने अलग-अलग हथकंडो के जरिये खूब पब्लिसिटी बटोरी,फिर वो मिका के किस का मामला हो या फिर "राखी का स्वयम्बर"....इस आइटम गर्ल ने वो सब कुछ किया जो भारतीय संस्कृति एक औरत को करने की छुट नही देती...बाजार में नग्नता पसंद लोगो की खास पसंद बनी राखी अब इंसाफ की देवी बन बैठी है...."राखी का इंसाफ"कुछ इस तरह का होता है की लोग आपस में मारपीट तक करते देखे जा सकते है...पिछले दिनों एक एपिसोड में राखी के  इंसाफ ने प्रेमनगर[भिंड] के लछमण अहिरवार को मौत की नींद सुला दिया...एपिसोड में लक्षमण  की मर्दानगी पर सवाल खड़े कर दिए गए,राखी के इंसाफ में "इंसाफ" मिलने की उम्मीद लिए पंहुचा लछमण अब इस दुनिया में नही है.....मौत के दो दिन बाद लक्ष्मण  की माँ ने थाने में राखी के खिलाफ अपराध दर्ज करवाया ....विभिन्न धाराओ   के तहत पुलिस ने मुकदमा भी दर्ज कर लिया ...मगर सवाल यहाँ ये खड़ा होता है की क्या सम्बंधित चैनल उस व्यक्ति की मौत के लिए  जिम्मेदार नही है ? क्या इस समाज को ऐसे कार्यक्रमो के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा नही खटखटाना चाहिए जो लोगो की जान लेने तक को उतारू हो गए है  ?
                                             सवाल कई है लेकिन जवाब कोई खुलकर नही देना चाहता....एक वक्त था जब टीवी पर "जनता की अदालत" और किरण बेदी की " कचहरी " लगती थी....उन कार्यक्रमों ने कई ज्वलंत मुद्दों को बेबाकी से उठाया,लोगो का विश्वाश टीवी और इंसाफ के उन कार्यक्रमों से बढ़ा ....हालाँकि मै जिस " जनता की अदालत" और "कचहरी" का जिक्र कर रहा हू उसकी तुलना " राखी के इंसाफ " से करना गलत होगा....राखी नाम की आइटम गर्ल इंसाफ के नाम पर अश्लीलता परोस रही है,लोग टीवी के सामने मजमा लगाये इंसाफ का नंगा नाच देख रहे है...इंसाफ,न्याय जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर न्यायिक व्यवस्था पर करारा तमाचा मारने वाले कई टीवी प्रोग्राम धडल्ले से चल रहे है और सूचना प्रसारण मंत्रालय है की सब कुछ जान कर भी अनजान बनने  का नाटक कर रहा है....बदन पर सब कुछ दिखा देने वाले कपडे,घडी की सुई की तरह चेहरे के बदलते भाव बताते है राखी आखिर क्या है?....खुद का स्वयम्बर रचाने से लेकर कथित पति को छोड़ने तक राखी ने काफी कुछ ड्रामा किया....टीवी  पर स्वयम्बर रचाने वाली आइटम गर्ल ने चंद दिनों में ऐलान भी कर दिया की उसका पति कुछ ऐसा करने को कहता है जो वो नही कर सकती,राखी ये भी कहती है की उसमे[पति]काफी कमी थी....राखी की अपने चंद दिनों के पति के खिलाफ इस तरह की बेबाक टिप्पणी मैंने स्टारन्यूज़ पर देखी थी.... खुद के घर परिवार की उलझी कड़ीयो को आज तक ना सुलझा पाने  वाली राखी अब लोगो के टूटे आशियाने को बसाने,परिवार की उलझी कड़ीयो को सुलझाने के लिए इंसाफ की कुर्सी पर बैठी है, जहाँ से  इन्सान को कथित इंसाफ की देवी ऐसी मानसिक  यातना देती है जिससे ग्रसित इन्सान "लक्ष्मण" की तरह मौत को गले लगा लेता है.....
                                                                                    सबसे बड़ी बात ये रही की एक व्यक्ति मानसिक यातना से टूटकर जान दे देता है और मानवधिकार की रक्षा के लिए लड़ने वाले,टीवी चैनल्स ख़ामोशी से सब बर्दाश्त कर जाते है....प्रेमनगर में  जिस दिन  लक्ष्मण की मौत का मातम होता  है उस दिन भी टीवी चैनल पर "राखी का इंसाफ"चल रहा होता है...लोग आधुनिक वस्त्रो या यू कहें की अर्धनग्न आइटम गर्ल को जज के रूप में देखकर तालिया पीटते रहे,अपने मुंह में ऊँगली डालकर सिटी मारने वाले अश्लीलता पसंद लोगो की जुबान पर ये नही आया " राखी तुने ये क्या किया रे....."



ZIAUDDIN

Thursday, December 9, 2010

शादी की उम्र


मै ये मानता हू की बदलते वक्त के साथ युवा वर्ग की सोच में भी बदलाव आया है खासकर शादी के मामले को लेकर....आज शादी की उम्र और उसके बारे में युवावो की राय बिलकुल ही भिन्न है,हालांकि दो दशक पहले यह उम्र सीमा और भी कम थी। अगर आजादी के पहले की बात करें तो उस समय हमारे यहां बाल-विवाह की प्रथा थी। आज भी कई इलाकों में यह प्रथा विद्यमान है। ऐसे में तमाम लोगों को बड़ी उम्र में शादी की बात सुनना अटपटा-सा जरूर लगता हैं। लेकिन समाज का एक वर्ग बड़ी उम्र में शादी को स्वीकार रहा है। लोग 30-35 की उम्र में शादी को आम मानने लगे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि बड़ी उम्र में शादी करनी उनकी मजबूरी है या शौक। शहरी परिवेश में बड़ी उम्र में शादी करना लोगों का शौक तो नहीं कह सकते बल्कि समय के बदलने के साथ लोगों की सोच में भी बदलाव आया है।
कुछ लोग पढ़ाई के बाद अपने कैरियर पर पूरा ध्यान देते है। ऐसे में कुछ कर दिखाने की होड़ में शादी के बारे में सोचने का भी वक्त नहीं होता। यह वर्ग अपने व्यवसाय और सामाजिक गतिविधियां में इतना व्यस्त है कि उनके पास विवाह के लिए सोचने के लिए समय ही नहीं है। शादी करना न करना हर किसी का व्यक्तिगत फैसला हो सकता है। आज के परिवेश में शादी की सही उम्र बताना बहुत कठिन है। युवावर्ग के पास करियर बनाने की आपाधापी में विवाह के लिए सोचने का वक्त ही नहीं बचता।
आज के युवा शादी के बंधन में बंधने से डरते भी हैं। लड़कों की मानसिकता यह होती है कि अभी ऐश-मौज कर लें, फिर पूरी जिदंगी तो पारिवारिक बंधन में बंधना ही है। वहीं लड़कियां इस बात से डरती है कि उन्हें नए घर में जाना है, पता नहीं वहां का माहौल कैसा होगा। लड़के एवं लड़कियां दोनों ही इसके चलते लम्बी उम्र तक शादी नहीं करना चाहते। वे अपने को किसी बंधन में डालने से कतराते हैं। लड़कियों के लिए शादी का मसला उनके  करियर से भी जुड़ा होता है। वे आशंकित होती हैं कि ससुराल वाले पता नहीं किस सोच के होंगे। कहीं शादी के बाद मुश्किल से मिली जॉब छोड़नी न पड़े।
आज की युवा पीढ़ी पढ़ी-लिखी है। वह अपने जीवन से जुड़े निर्णय खुद लेने लगी है। इसमें अपने साथी का चुनाव भी शामिल है। इसी के चलते लिव-इन-रिलेशनशिप का नया चलन चला है। लोग अपने जीवन साथी का चुनाव खुद करते हैं। इसमें अपने साथी को सोचने-समझने के लिए वक्त मिल जाता है। यह एकदम शादी जैसा ही है। इसमें दोनों एक साथ ही रहते है, बस शादी के बंधन में बंधना नहीं चाहते। साथ रहने के दौरान यदि उन्हें लगता है कि हमारी जिदंगी एक-दूसरे के साथ गुजर सकती है तो फिर वे शादी कर लेते हैं।
युवावर्ग को समझना होगा कि करियर के बारे में सोचना अच्छी बात है लेकिन शादी में देरी से कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। देर से शादी से जहां पुरूष में पिता बनने की क्षमता में कमी होती दिख रही है वहीं महिलाओं को भी मां बनने में परेशानियों का सामना करना पड़ता हैं। शादी के बाद पुरूष तथा महिलाओ में शारीरिक बदलाव आता है। लेकिन बड़ी उम्र में शादी करने से शरीर को इन बदलावों से तालमेल बिठाने में दिक्कत होती है। शादी की कामयाबी का एक अहम तत्व पति-पत्नी के बीच का तालमेल भी होता है। लेकिन अधिक उम्र में शादी करने के बाद पार्टनर से तालमेल बिठाना आसान नहीं होता क्योंकि बढ़ती उम्र में अपनी सोच में बदलाव लाना काफी कठिन होता है।
समाज में हमेशा से बदलाव होता रहा है। आज आर्थिक युग में युवावर्ग के लिए करियर सर्वोच्च प्राथमिकता है। जिसके चलते शादी की उम्र का बढ़ना लाजमी है। ऐसे में मां-बाप को भी चाहिए कि उनका साथ दे। जो मां-बाप अपने बच्चों को कम उम्र में या उसे अपना करियर बनाए बिना शादी की बात करते है उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसलिए मां-बाप को भी अपने सोच में बदलाव लाना चाहिए।  
 
ZIAUDDIN

Tuesday, December 7, 2010

मौत पर तमाशा...



अपराध से जुडी खबरों से अक्सर ये पाया की लोगो   को अब हादसे के बाद हल्ला मचाने में काफी मजा आता है....हादसे में कोई घायल हो जाये या फिर किसी की मौत,तमाशाई बिना कुछ सोचे समझे वो सब कुछ करते है जो इन्सान की परेशानी का कारण बन जाता है...सड़क हादसे के बाद जो मौके पर स्थिति बनती है वो देखने लायक होती है...हादसे में किसी की जान चली गई तो लोग सारा काम छोड़कर मौके पर गति अवरोधक बनाने से लेकर उचित मुआवजे की मांग करने लगते है और सड़क पर जाम लगा दिया जाता है....कभी-कभी भीड़ में ज्यादा उत्साही या यूँ कहे की शरारती तत्वों की उकसाऊ प्रवित्ति वाहनों में आग लगने की वजह भी बन जाती है...मौके पर लाश घंटो तमाशाइयो की वजह से अंतिम क्रिया-कर्म के लिए उन पुलिस वालो की कार्यवाही का इन्तेजार करते पड़ी रहती है जो खुद एसडीम,तहसीलदार जैसे सरकारी नौकरों का इंतजार करते तमाशाइयो का तमाशा देखती है.... मूक दर्शक की तरह खड़ी पुलिस हर परिस्थिति से निपटने तैयार दिखती है,लेकिन मौके पर होता तमाशा उनकी लाचारी को छिपा नही पता...ये तो हुआ हादसे के बाद पुलिस और उग्र भीड़ का अक्सर दिखाई पड़ने वाला किस्सा...अब मै अपने उस अनुभव को बता रहा हू जिससे अक्सर मेरा पाला पड़ता रहा है...हादसा हुआ,हादसे में किसी की मौत हो गई,उसके बाद सैकड़ो लोग सारा काम-धाम छोड़कर मौके पर प्रदर्शन के लिए जुट गए लेकिन उस भीड़ में करीब-करीब ९० फीसदी लोग नही जानते मरने वाला कौन था,क्या करता था और कहाँ का रहने वाला था...लोग एक दुसरे को देखकर आवाज बुलंद करते है...बात कल {३ दिसंबर}ही की तो है,बिलासपुर के तोरवा थानाक्षेत्र के महमंद बाइपास से थोडा आगे एक ट्रेलर ने राह चलते बुजुर्ग को इस कदर रौंद दिया था कि उसे पहचान पाना आसान नही था...मरने वाले के कुछ जान-पहचान वाले उसके पीछे-पीछे चल रहे थे,इस वजह से मरने वाले की शिनाखत्गी में ज्यादा वक्त नही लगा.... ट्रेलर के पिछले चक्के में बुरी तरह से फंसकर अकाल मौत के मुंह में समाये उस बुजुर्ग का नाम जीवराखन था...ग्राम धूमा का रहने वाला जीवराखन सब्जी बेंचकर आजीविका चला रहा था....हमेशा की तरह मौत के बाद मौके पर मुआवजा,सड़क निर्माण और कई मांगो का मुह्जुबानी पुलिंदा लिए लोगो की भीड़ जमा हो गई...हर कोई जीवराखन की मौत के बाद जागा नजर आया,सबको लगा अब ये रास्ता बड़े वाहनों के लिए बंद होना चाहिए...गाँव के जिस रास्ते पर बड़े-बड़े वाहनों के आवागमन का सिलसिला बेरोक-टोक जारी है वो पास ही एक बड़े आदमी की फेक्ट्री तक जाता है....इस वजह से कुछ{नेता टाइप} दबी जुबान,तो कुछ दुसरो से बुलवाना चाह रहे थे ताकि रास्ता भी बंद ना हो और फैक्ट्री मालिक से व्यव्हार भी बना रहे...खैर,हादसे की खबर पुलिस को लगी वो मौके पर पहुंचकर लोगो को शांत करवाने में जुट गई,हालाँकि पुलिस नाराज लोगो को शांत करवाने में नाकाम ही रही... पुलिस के कुछ अधिकारी गुस्साई भीड़ को तरह-तरह का झांसा देकर मामला शांत कराने की जद्दोजहद कर ही रहे थे कि अचानक भीड़ के बीच से आवाज आई "क्या बात करते हो साहेब हम जैसे ही सड़क से हटेंगे आप हमारी मांगे तो दूर हमको पहचानने से भी इंकार कर दोगे"....मतलब  लोग जान चुके है कि जो कुछ होगा मौके पर ही होगा...इधर पुलिस भी जानती थी कि जब तक प्रसाशन का कोई नुमाइंदा नही आएगा तब तक बात नही बनने वाली ना लोग शांत होने वाले....हादसे की खबर सुनकर कुछ पुलिस वाले सुबह से आये थे,शायद इसीलिए भूखा गए थे बेचारे....पास के एक छोटे से ठेले में भजिया,समोसा देखकर पुलिस वाले वही लपक लिए...उन्होंने सोचा मरने वाला मर गया,तमाशा करने वाले जब तक बड़े साहेब नही आएँगे तब तक शांत नही होंगे तो क्यों ना पेट पूजा कर ली जाये...इधर लोग सड़क जाम कर पास की एक गुमटी को तोड़कर आग लगाते रहे,कुछ सड़क पर खड़े होकर हंगामा मचाने वालो की हाँ में हाँ मिलाते रहे और ट्रेलर के पहिये के नीचे दबी जीवराखन की लाश करीब सात घंटे तक अंतिम क्रिया-कर्म का इन्तेजार करती रही............


ZIAUDDIN

Sunday, December 5, 2010

आजतक की मुन्नियां!


30 मिनट नाचोगी…
तीन करोड़ मिलेंगे…
 
ना बाबा ना !” देश के सर्वश्रेष्ठ और सबसे तेज चैनल आजतक के प्रोमो ((प्रोमो मतलब किसी प्रोग्राम का एक तरह का विज्ञापन जिसके जरिये दर्शकों के अंत: मन में एक उत्सुकता जगायी जाती है ताकि वो एक तय समय पर जमा हो कर वो प्रोग्राम देखें)) की पंक्तियां हैं। ये पंक्तियां किसी शातिर दिमाग की पैदाइश होंगी। ऐसा दिमाग, जो मानता हो कि तीन करोड़ रुपये मिलें तो किसी को भी तीस मिनट नाच लेना चाहिए। ऐसे में अगर बॉलीवुड की किसी “शीला” या फिर “देसी गर्ल” ने इससे इनकार किया, तो यह ऐतिहासिक घटना है और एक ऐसी मजेदार ख़बर है, जिस पर आधे घंटे का विशेष बनाया जा सकता है। वो भी ऐसे दौर में, जब मीडिया की नैतिकता का सवाल गहरा हो रहा है। जब पत्रकारिता का दामन दागदार हुआ है। खैर पत्रकारिता गयी तेल लेने। फिलहाल बात “मुन्नी” की। “मुन्नी” अभी हॉट और सेलेबल है।
 
“मुन्नी” पहले मोबाइल हुई। अब “मुन्नी” बदनाम हो गयी है। चुलबुल पांडे के चक्कर में अमिया से आम हो गयी और फिर सिनेमा हॉल हो गयी। और सिनेमा तो न्यूज चैनलों की सबसे बड़ी कमजोरी है। यही वजह है कि अब टेलीविजन चैनल वाले “मुन्नी” के पीछे पागल हैं। दीवाने हैं। “मुन्नी” का जिक्र हुआ नहीं कि सिसकारी भरने लगते हैं। ऐसे में ख़बर आयी कि नये साल के मौके पर देश के रईस लोग पांच सितारा होटलों में “मुन्नी” का मुजरा देखना चाहते हैं। फिर क्या था… पांच सितारा होटलों में अपने-अपने लिए “मुन्नी” तलाशने को होड़ मच गयी। एक होटल ने देसी गर्ल (प्रियंका चोपड़ा) को तीन करोड़ का ऑफर दिया। तीस मिनट नाचने के लिए। लेकिन देसी गर्ल ने इससे मना कर दिया। फिर ऑफर शीला यानी कैटरीना कैफ को दिया गया। उन्होंने भी “मुन्नी” बन कर मुजरा करने से इनकार कर दिया। बताइए भला, किसी को तीन करोड़ रुपये तीस मिनट के लिए मिले और वो मना कर दे… है न हैरानी की बात।
 
इसी से हैरान परेशान आजतक के कर्ताधर्ताओं को स्पेशल का आइडिया मिल गया। लेकिन आधे घंटे का प्रोग्राम बनाने के लिए रिसर्च की जरूरत पड़ती है। उनकी खोजी टीम इस मुहिम में जुट गयी। इतिहास के पन्ने खोले गये। पता लगाया गया कि जिस्म को लेकर हिट हुईं सेक्सी बिपाशा ने आइटम सांग के लिए कितने पैसे लिये थे… बेबो ने कितने और जहरीली मल्लिका ने अपने-अपने दौर में “मुन्नी” बनने के लिए कितने पैसे लिये थे! फिर बताया गया कि बाजार गर्म है और तीस मिनट के लिए इतने पैसे मिले तो किसी को भी “मुन्नी” बन जाना चाहिए। लेकिन “मुन्नी” बनने से इनकार करके देसी गर्ल और शीला ने कमाल कर दिया। पूरा प्रोग्राम देखने पर बार-बार यही लग रहा था कि इतने पैसे मिले तो आजतक में कोई भी “मुन्नी” बन जाए!
 
ये तो हुई आजतक की बात। स्टार न्यूज तो इससे भी आगे निकल गया। उसके खोजी पत्रकार यह भी ढूंढ लाये कि एक घंटे के लिए देश के खरबपतियों को कितने पैसे मिलते हैं। ग्राफिक के जरिये एक शानदार तराजू बनाया, जिसमें एक तरफ “मुन्नी” को बिठाया और फिर मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, जिंदल से लेकर कई अरबपतियों को तोल दिया। सारे के सारे “मुन्नी” के आगे पानी भरते नजर आये। किसी की भी इतनी औकात नहीं थी कि वो प्रति घंटा कमाई के मामले में “मुन्नी” का मुकाबला कर सकें। यहां तो उनसे यही कहने को जी कर रहा है कि ससुरे एक बार अपने मालिकों और संपादकों को भी उसी तराजू में तोल देते तो स्टोरी और दमदार हो जाती। दुनिया को भी पता चल जाता कि “मुन्नी” के आगे उनके मालिकों और संपादकों की क्या औकात है!
 
बहरहाल … “मुन्नी” हिट है। शीला सुपरहिट है। और अगले कुछ हफ्तों-महीनों तक आजतक और स्टार न्यूज सरीखे टेलीविजन न्यूज चैनलों पर “मुन्नी” का मुजरा और शीला की जवानी कई नये गुल खिलाने वाली है। ऐसे में देश के चौथे स्तंभ की इस बदहाली पर आंसू बहाएं, चैनलों के “फ्रस्टुआये” और “कमीने” पत्रकारों पर तरस खाएं, या फिर उनकी रचनात्मकता का लुत्फ उठाएं… ये फैसला तो आपको करना है....
 
 
ZIAUDDIN

Wednesday, November 24, 2010

wedding...with Salman Khan

Asin, Salman 'Marriage' Buzzes South' - Bollywood1


 

Asin Thottumkal has been besieged with calls congratulating her on her wedding...with Salman Khan, no less! Surely, any girl in her right mind would be ready for the nuptials. Precisely, that's what Asin's declaring too.
 
Salman Khan wedded Asin in a solemn ceremony. The duo was 'Ready' for it, and preparations were in full swing to ensure that sequence went off smoothly. Incidentally, Asin's gone the whole hog, wedding wise. She's endured the thrills of a Tamil, Telugu and Malayali wedding in South cinema. And now, in a fitting tribute to nuptials, she's relishing the whole fuss and drama that the "Punjabi  marriage" in the Anees Bazmee helmed flick has raked up.
 

Asin, Salman 'Marriage' Buzzes South' - Bollywood3
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Amid giggles, Asin states in a tabloid chat, "I'm really enjoying this whole wedding bit joke. I've been taking the 'saat pheras' in my bridal outfit for a week now. I almost feel married to Salman now. The family opposition bit is also part of the script."  The much married actress (hey, in South cinema only) has stumbled upon the joys of a full throttle Punjabi wedding.
Reveals Asin, "I've gone through Malayali, Tamil and Telugu marriages in my films, but this is my first Punjabi wedding. I've loved every moment of it and even danced at my own 'sangeet'.
 
 
In fact, hunky co actor Salman Khan too seems to be totally sold over the fun and frolic of a Punjabi wedding. And whadya know, the duo has decided that whenever they decide to opt for matrimony, the ceremony will be conducted in true Punjabi style. Asserts Asin, "Salman and I have made a pact. It'll be a big fat Punjabi wedding." Eligible (and loaded) singletons, grab your clue...
 
ZIAUDDIN
 

Tuesday, November 23, 2010

"रिपोर्ट यहाँ दर्ज करावें"




पने कई जगहों पर लिखे स्लोगन पढ़े होंगे जिन पर 
लिखा होता है "मोबाईल यहाँ पर रिचार्ज होता है,दूध-दही-मक्खन यहाँ मिलता है,देसी मुर्गी के अंडे मिलने का एक मात्र स्थान...." जैसी  कई और बातें...अब आप बिलासपुर के किसी भी थाने में जायेंगे कुछ उसी अंदाज में एक बोर्ड पर लिखा मिलेगा"रिपोर्ट यहाँ दर्ज करावें"...मतलब दुकानदारी या यूँ कहूँ की जिस तरह से ग्राहक फ़साने के लिए दुकान के बाहर आकर्षक स्लोगन लिखा होता है वैसा ही कुछ थानों में लिखकर पीड़ित की परेशानी को कम करने का प्रयास किया गया है...अब किसी भी पीडीत को थाने पहुंचने के बाद रिपोर्ट लिखवाने के लिए भटकना नही पड़ेगा...एक निर्धारित जगह पर बैठे खाकी वर्दी वाले साहेब से मिलकर बस आपको अपनी व्यथा सुनानी है..ये बात अलग है की आप जब थाने जाये तो जरुरी नही की वो साहेब आपको मिल जाएँ..हाँ सबको जी हुजुर बोलने के झंझट से आम जनता को छुटकारा जरुर मिल जायेगा...हर बात के लिए {"रिपोर्ट यहाँ दर्ज करावें"}इस बोर्ड के नीचे लिखे साहब से संपर्क करिए..व्यवस्था नई है,हो सकता है महंगाई के मुताबिक फीस बढ गई हो पर समस्या हल होगी ऐसा विभाग के अधिकारी भी कहते है...पुलिस अधिकारी शहर के थानों में हरियाली लाने पौधारोपण कर रहे है,कई थानों का कायाकल्प हो रहा है...नई साज-सज्जा के साथ कई थानों में थानेदार से लेकर रंगरूट तक नये है...लगता है खाकी अब नये अंदाज में जनता को उल्लू बनाने की फ़िराक में है... शहर में
पिछले तीन चार महीनो में अपराध का ग्राफ जितनी तेजी से बढा है उससे तो यही लगता है की ऊपर से लेकर नीचे तक सब अपराधी की परछाई को पकड़ने के लिए पैदल चल रहे है...अपहरण,हत्या,चोरी,लूट जैसी वारदात अब खुलेआम और बेखोफ हो रही है...वारदात के बढे ग्राफ से साहेबानो को भी खास फर्क नही पड़ता...साहेब लोग अपने में मस्त है और अपराधी अपने कारनामो में...वैसे बिलासपुर जिले की कानून व्यवस्था का हाल भगवान भरोसे उसी दिन से हो गया जिस दिन से थोरात साहेब बतौर एसपी यहाँ आये...हर दस दिन बाद थानों में फेरबदल,यहाँ-वहाँ जवानो की बेजा कसरत और पुलिस के वास्तविक कर्तव्यों को भूल बाकी सब कुछ करना,यही सच खाकी वर्दी के पीछे छिपे कुछ इन्सान गाहे-बगाहे कर देते है....वरना तो अब सारे दबंग ये कहते फिर रहे है कि रिपोर्ट दर्ज कराना है तो यहाँ आयें....


ZIAUDDIN

Sunday, November 21, 2010

बड़ी "पोलिटिक्स" है भाई...


मुझे नफ़रत हैं ऐसे लोगों से लेकिन क्या करें, कुछ लोगों की दुकानदारी ही ऐसे चलती है... वो उस मछली के किरदार में होते हैं जो पूरे तालाब को गंदा कर देती है... जिनका स्वार्थ ही दूसरों को छोटा साबित करके ख़ुद को बड़ा बनाना है.....और आख़िर में अपनी आदत से मजबूर होकर वो अपने ज़मींदोज़ होने का मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं....हालाँकि उस मार्ग में बढ़ते कदमो की आहट सुनाई नही पड़ती...
आप किसी भी सरकारी या गैर सरकारी दफ़्तर में काम करते हों....ज़रा बताइए, कितने लोग हैं आपके दफ़्तर में जो अपनी नौकरी से संतुष्ट हैं.....अरे, लोग जिसकी नौकरी करते हैं, उसी को गाली देते फिरते हैं..... जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं.... मेरे दफ्तर में ऐसे दो चेहरे वालो की फेहरिस्त लम्बी है...लोग परस्पर किसी भी मुद्दे पर असहमत हों लेकिन अपनी नौकरी और बॉस को लेकर कामोबेश सभी एक दूसरे से सहमत होते हैं.....सभी का ‘संस्थागत मानसिक स्तर’ ख़तरे के निशान से ऊपर ही रहता है....सरकारी नौकर अपने अधिकारी से परेशान और प्राइवेट वाले अपने बॉस से......वैसे मेरे दफ्तर में मालिक को छोड़ दे तो सभी अपने-अपने स्तर पर बास होने का दावा करते है...मै तो पिछले कई बरस से यही समझने की कोशिश कर रहा हूँ आखिर बास है कौन ?
मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ऑफ़िस में लोगों को अपना बॉस हिटलर का बेवकूफ़ क्लोन क्यों नज़र आता है? कर्मचारियों का मानना होता है कि बॉस तो कर्मचारियों को मज़दूर समझता है.... दफ़्तर के सर्वाधिक नाकारे लोग बॉस को गाली देते फिरते हैं....जिनके पास काम होता उन्हे बॉस और सहकर्मियों को गाली बकने का समय नहीं मिल पाता, लिहाज़ा वो घर आकर अपनी व्यस्तता का गुस्सा अपने बीवी-बच्चों पर निकलाते हैं....बॉस कितना भी अच्छा क्यूं ना हो कभी प्रशंसा का पात्र नहीं बन पाता.....पता नहीं क्यूं, हर तरह का कर्मचारी अपने को शोषित मानता है......जो कुछ काम नहीं करते वो कहते फिरते हैं कि मेरी प्रतिभा को यहां कुचला जा रहा है, मुझे मौक़ा ही नहीं दिया जाता, मौक़ा मिलते ही मैं तो जंप मार जाऊंगा.... कोई और धंधा पानी शुरू करूंगा... और जिनसे काम लिया जाता है, वो भी यही कहते घूमते हैं कि मेरा शोषण हो रहा है, वेरी वॉट लगा रखी हैं, गधों की तरह मुझसे काम लिया जाता है, मौक़ा मिलते ही मैं तो जंप मार जाऊंगा....

ना जाने क्यूं कुछ लोग अपने जिस दफ़्तर को जहन्नुम बताते फिरते हैं, उसे ये जानते हुए भी नहीं छोड़ना चाहते कि उनके ना रहने से कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं.... वो जन्म भर की तरक्की की उम्मीद वहीं रहकर करते हैं, उनकी प्रतिभा भी पहचान ली जाए, सारे महत्वपूर्ण काम उन्ही से कराए जाएं, उनकी तनख्वाह भी उनके मन मुताबिक हर साल बढ़ा दी जाए, उनके अलावा किसी और को भाव ना दिया जाए..... अरे भाई, आप इतने ही प्रतिभावान हैं तो कहीं और किस्मत क्यों नहीं आज़माते.....ऐसे लोग अपनी नौकरी को गाली भी बकेंगे और रहेंगे भी वहीं.....ये भी ख़ूब है......वैसे ऐसे लोग बेवकूफी का स्वांग रचकर संस्था की आड़ में बाजार से जैसे हो सके नोट बटोरते है....इस खास प्रजाति के लोगो की असल औकात २ समोसे से शुरू होकर ५००-१००० रुपये तक दम तोड देती है....कभी जाल में कोई बुरा फंस गया तो ये लोग औकात से बड़ी बात करने से भी नही चूकते.....वैसे भी मेरी बिरादरी के चर्चे २जी स्पेक्ट्रम तक पहुँच गए है..... सच कहू प्रतिष्ठा भी इस खास प्रजाति के लोगो की ज्यादा नजर आती है....इन्हें  घर से लेकर अपनी जरुरत पूरी करने के लिये हर दिन किसी ना किसी की चाटुकारिता का नाटक करना पड़ता है,ये जिसे उस दिन का बकरा समझते है वो इनसे ज्यादा होशियार और चालक होता है....वो कथित बकरा हलाल{रूपये देने}होने से पहले सब कुछ अपने हिसाब से करवा लेता है...इस बीच अगर आपसे कुछ गलती हुई तो मोबाईल की घंटी बजने में भी वक्त नही लगता,फिर सफाई देने से लेकर दुबारा गलती ना होने की गारंटी भी वो पत्रकारिता का मुखौटा लगाये लोग लेते है...ऐसे में आप सोच सकते है की वो लोग दूसरी जगह जाकर मेहनत करेंगे ?बेवकूफ ही होगा कोई जो महीने की बधी-बधाई कमाई छोड़कर दूसरी जगह जायेगा...फिर भी कुछ लोगों को हमेशा लगता है कि सबसे ज़्यादा काम तो वही करते हैं, फिर भी उनकी तनख़्वाह कितनी कम है और बाक़ी सारे तो बस गुलछर्रे उड़ाने की सैलरी पाते हैं....  वो लोग सोचते है की काम मैं करता हूं और पैसे दूसरों को मिलते हैं.....छोड़ूंगा नहीं.....ऐसे कितने ही प्रतिभावान लम्मपट दूसरों की तरक्की में टंगड़ी लड़ाने के चक्कर में अपनी ही छीछालेदर करवाते है लेकिन उनकी बेशर्म बांछे हमेशा खिली नजर आती है....चलिए यही रुक जाता हूँ वरना नवसिखिये कलमकारों को ढक्कन भर शराब में लोटा भर पानी मिलाना पड़ जायेगा....

ZIAUDDIN

Thursday, November 18, 2010

The much-hyped marriage

We want Sara, Ali relationship to end - Bollywood1



The much-hyped marriage of television actress Sara Khan and Ali Merchant is over and the former's mother says that they were never in favour of the relationship. (IANS)
We want Sara, Ali relationship to end - Bollywood2
 
 
'We never liked Ali and we were opposing their marriage. But today the time has changed. Parents have to follow children, the children don't follow them,' Sara's mother Seema Khan told IANS. 'We want this relationship to get over,' she added.
We want Sara, Ali relationship to end - Bollywood3
 
 
Both Sara and Ali are from Bhopal and they moved to Mumabi to pursue their acting career. Sara got fame with her role in Star Plus's 'Sapna Babul Ka - Bidaai', while Ali came to the limelight with Imagine's 'Do Hanson Ka Joda'.
 
                                                                 
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Both Sara and Ali tied the knot Nov 10 in 'Bigg Boss' house, but within 43 days the reports came that the two are living separately in Mumbai. The reason for the rift is said to be Ali misusing the money Sara earned by participating in 'Bigg Boss 4'.
 
 
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After staying in 'Bigg Boss' house for weeks, Sara was evicted early this month.  Sara's phone was found switched off when attempts were made to contact her.
 
 
ZIAUDDIN